श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  3.17.9 
अन्तर्ग्रामेषु मुखतो वमन्त्यो वह्निमुल्बणम् ।
सृगालोलूकटङ्कारै: प्रणेदुरशिवं शिवा: ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
अन्त:—भीतर; ग्रामेषु—गाँवों के; मुखत:—उनके मुखों से; वमन्त्य:—उगलते हुए; वह्निम्—आग; उल्बणम्— भयावनी; सृगाल—सियार; उलूक—उल्लू; टङ्कारै:—चीख से; प्रणेदु:—उत्पन्न; अशिवम्—अशुभ, अमंगलसूचक; शिवा:—सियारिनें ।.
 
अनुवाद
 
 गाँवों के भीतर सियारिनें अपने मुखों से दहकती आग उगलती हुई अमंगल सूचक शब्द करने लगीं। इस रोने में सियार तथा उल्लू भी साथ हो लिये।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥