श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 18: भगवान् वराह तथा असुर हिरण्याक्ष के मध्य युद्ध  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.18.13 
मैत्रेय उवाच
सोऽधिक्षिप्तो भगवता प्रलब्धश्च रुषा भृशम् ।
आजहारोल्बणं क्रोधं क्रीड्यमानोऽहिराडिव ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय:—परम ऋषि मैत्रेय ने; उवाच—कहा; स:—असुर ने; अधिक्षिप्त:—अपमानित होकर; भगवता—भगवान् द्वारा; प्रलब्ध:—उपहास किया; च—तथा; रुषा—क्रुद्ध; भृशम्—अत्यधिक; आजहार—जुटाया; उल्बणम्— अधिक; क्रोधम्—क्रोध, गुस्सा; क्रीड्यमान:—खेला जाकर; अहि-राट्—विशाल विषधर (सर्प); इव—सदृश ।.
 
अनुवाद
 
 श्रीमैत्रेय ने कहा—जब श्रीभगवान् ने उस राक्षस को इस प्रकार ललकारा तो वह क्रुद्ध और क्षुब्ध हुआ और क्रोध से इस प्रकार काँपने लगा, जिस प्रकार छेड़ा गया हुआ विषधर सर्प।
 
तात्पर्य
 सामान्य पुरुषों के समक्ष नाग (सर्प) अत्यन्त डऱावना हो जाता है, किन्तु सँपेरे के समक्ष तो वह खेलने की वस्तु बन जाता है। इसी तरह भले ही कोई असुर अपने प्रभाव क्षेत्र में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, किन्तु भगवान् के समक्ष वह निरीह होता है। रावण देवताओं के समक्ष अत्यन्त भयावना व्यक्ति था, किन्तु जब वह भगवान् रामचद्र के समक्ष आया तो काँप रहा था और उसने अपने देव शिवजी से प्रार्थना की, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥