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श्लोक 3.18.18  |
एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो हरिरेव च ।
जिगीषया सुसंरब्धावन्योन्यमभिजघ्नतु: ॥ १८ ॥ |
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शब्दार्थ |
एवम्—इस प्रकार; गदाभ्याम्—अपनी गदाओं से; गुर्वीभ्याम्—विशाल; हर्यक्ष:—हर्यक्ष नामक असुर (हिरण्याक्ष); हरि:—भगवान् हरि; एव—निश्चय ही; च—तथा; जिगीषया—विजय की लालसा से; सुसंरब्धौ—क्रुद्ध; अन्योन्यम्—परस्पर; अभिजघ्नतु:—उन्होंने प्रहार किया ।. |
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अनुवाद |
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इस प्रकार असुर हिरण्याक्ष तथा भगवान् हरि ने एक दूसरे को जीतने की इच्छा से क्रुद्ध होकर अपनी अपनी विशाल गदाओं से एक-दूसरे पर प्रहार किया। |
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तात्पर्य |
हर्यक्ष हिरण्याक्ष का दूसरा नाम है। |
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