हे कुरुवंशी, वाराह रूप में प्रकट श्री भगवान् तथा असुर के मध्य विश्व के निमित्त होने वाले इस भयंकर युद्ध को संसार के हेतु देखने के लिए ब्रह्माण्ड के परम स्वतन्त्र देवता ब्रह्मा अपने अनुयायियों सहित आये।
तात्पर्य
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तथा असुर के युद्ध की तुलना गाय के लिए लडऩे वाले दो साँड़ों के युद्ध से की गई है। पृथ्वी लोक को गो अर्थात् गाय भी कहा जाता है। जिस प्रकार गाय से संसर्ग करने के लिए दो साँड़ परस्पर लड़ते हैं उसी प्रकार से इस पृथ्वी पर आधिपत्य जमाने के लिए असुरों तथा परमेश्वर या उनके प्रतिनिधियों के मध्य अनवरत संग्राम चलता रहता है। यहाँ पर भगवान् को यज्ञावयव के रूप में विशेषरूप से वर्णित किया गया है। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि भगवान् का शरीर सामान्य शूकर का था। वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं और वे ऐसे रूपों से नित्य युक्त रहते हैं। उन्हीं से सारे रूपों का उदय हुआ है। उनके वराद्र रूपी शरीर को सामान्य शूकर नहीं मानना चाहिए, उनका शरीर वास्तव में यज्ञ से पूर्ण रहता है। यज्ञ (हवि) विष्णु को प्रदान किया जाता है। यज्ञ का अर्थ है भगवान् विष्णु का शरीर। उनका शरीर भौतिक नहीं होता, अत: उन्हें सामान्य शूकर नहीं समझना चाहिए।
इस श्लोक में ब्रह्मा को स्वराट् कहा गया है। वस्तुत: पूर्ण स्वतन्त्रता तो भगवान् को ही प्राप्त है, किन्तु भगवान् का अंश होने से प्रत्येक जीवात्मा में कुछ न कुछ स्वतन्त्रता निहित है। ब्रह्मा को समस्त जीवात्माओं में प्रमुख होने के कारण अन्यों की अपेक्षा कुछ अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त है। वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रतिनिधि हैं और सांसारिक व्यापारों की अध्यक्षता करने के लिए नियुक्त हैं। अन्य सभी देवता उनके लिए कार्य करते हैं इसीलिए उन्हें यहाँ स्वराट् कहा गया है। महान् ऋषि तथा योगी सदैव उनके साथ-साथ रहते हैं, अत: वे सभी, असुर तथा भगवान् का युद्ध देखने के लिए आये थे।
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