ब्रह्मोवाच
एष ते देव देवानामङ्घ्रिमूलमुपेयुषाम् ।
विप्राणां सौरभेयीणां भूतानामप्यनागसाम् ॥ २२ ॥
आगस्कृद्भयकृद्दुष्कृदस्मद्राद्धवरोऽसुर: ।
अन्वेषन्नप्रतिरथो लोकानटति कण्टक: ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
ब्रह्मा उवाच—ब्रह्माजी ने कहा; एष:—यह असुर; ते—आपका; देव—हे भगवान्; देवानाम्—देवताओं का; अङ्घ्रि- मूलम्—आपके चरण; उपेयुषाम्—शरणागत; विप्राणाम्—ब्राह्मणों को; सौरभेयीणाम्—गायों को; भूतानाम्— सामान्य जीवात्माओं को; अपि—भी; अनागसाम्—निर्दोष; आग:-कृत्—अपराधी; भय-कृत्—भय का कारण; दुष्कृत्—दोषी; अस्मत्—मुझसे; राद्ध-वर:—वरदान प्राप्त; असुर:—असुर; अन्वेषन्—ढ़ूँढ़ते हुए; अप्रतिरथ:—योग्य जोड़ न होने से; लोकान्—समूचे ब्रह्माण्ड में; अटति—घूमता है; कण्टक:—सबों के लिए काँटे के समान बना हुआ ।.
अनुवाद
ब्रह्माजी ने कहा—हे भगवन्, यह राक्षस, देवताओं, ब्राह्मणों, गौवों तथा आपके चरणकमलों में समर्पित निष्कलुष व्यक्तियों के लिए निरन्तर चुभने वाला काँटा बना हुआ है। उन्हें अकारण सताते हुए यह भय का कारण बन गया है। इन्हें अकारण सताते हुए यह भय का कारण बन गया है। मुझसे वरदान प्राप्त करने के कारण यह असुर बना है और समस्त भूमण्डल में अपनी जोड़ के योद्धा की तलाश में इस अशुभ कार्य के लिए घूमता रहता है।
तात्पर्य
जीवात्मा दो प्रकार के होते हैं—एक सुर अर्थात् देवता कहलाती हैं और दूसरी असुर या दैत्य। असुर प्राय: देवताओं की पूजा करते हैं और ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं कि पूजा से उन्हें इन्द्रियतृप्ति की असीम शक्ति प्राप्त हुई है। इसी कारण से ब्राह्मणों, देवताओं तथा अन्य निर्दोष जीवात्माओं को कष्ट मिलता है। वे इनके दोष निकालते रहते हैं और उनके लिए निरन्तर भय का कारण बने रहते हैं। आसुरी ढंग ही ऐसा है कि देवताओं से शक्ति प्राप्त करके उन्हीं को सताया जाय। शिवजी के एक महान् भक्त का उदाहरण मिलता है, जिसे शिव ने यह वर दिया था कि वह जिस किसी के सिर को छू देगा, उस का सिर धड़ से अलग हो जाएगा। ज्यों ही उसे यह वर प्राप्त हुआ उसने शिवजी का ही सिर छूना चाहा। यही उनकी रीति है। किन्तु भगवान् के भक्त कभी इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई वर नहीं चाहते। यदि उन्हें मुक्ति भी भेंट की दी जाती है वे उसे अस्वीकार कर देते हैं। वे तो भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे रहने में प्रसन्न रहते हैं।
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