श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 18: भगवान् वराह तथा असुर हिरण्याक्ष के मध्य युद्ध  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  3.18.24 
मैनं मायाविनं द‍ृप्तं निरङ्कुशमसत्तमम् ।
आक्रीड बालवद्देव यथाशीविषमुत्थितम् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
मा—मत; एनम्—उसको; माया-विनम्—माया करने वाला; दृप्तम्—हेकड़ीबाज; निरङ्कुशम्—आत्मनिर्भर; असत्- तमम्—अत्यन्त दुष्ट; आक्रीड—खेल करें; बाल-वत्—बच्चे के समान; देव—हे भगवान्; यथा—जिस प्रकार; आशीविषम्—सर्प; उत्थितम्—जगा हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्माजी ने आगे कहा—हे भगवन्, इस सर्पतुल्य असुर से खेल करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह सदैव मायावी करतब में दक्ष तथा हेकड़ी बाज है, साथ ही निरंकुश एवं अत्यधिक दुष्ट भी।
 
तात्पर्य
 जब सर्प मारा जाता है, तो कोई दुखी नहीं होता। देहातों के लडक़े अब भी साँप को पूँछ से पकड़ कर कुछ समय तक खेल करते हैं और फिर उसे मार डालते हैं। इसी प्रकार भगवान् चाहते तो असुर को तुरन्त मार डालते, किन्तु वे उससे उसी प्रकार खेल रहे थे जैसे साँप को मारने के पहले लडक़े उससे खेल करते हैं। फिर भी ब्रह्मा ने प्रार्थना की कि चूँकि यह असुर अत्यन्त दुष्ट है और साँप से भी अधिक त्याज्य है, अत: उसके साथ खिलवाड़ करने की आवश्यकता नहीं है। वे चाहते थे कि उसका तुरन्त वध कर दिया जाय।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥