श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 18: भगवान् वराह तथा असुर हिरण्याक्ष के मध्य युद्ध  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.18.5 
त्वयि संस्थिते गदया शीर्णशीर्ष-
ण्यस्मद्भुजच्युतया ये च तुभ्यम् ।
बलिं हरन्त्यृषयो ये च देवा:
स्वयं सर्वे न भविष्यन्त्यमूला: ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
त्वयि—जब तुम; संस्थिते—मारे जाओगे; गदया—गदा से; शीर्ण—छिन्न भिन्न; शीर्षणि—सिर; अस्मत्-भुज—मेरे हाथ से; च्युतया—छूटी हुई; ये—जो; च—तथा; तुभ्यम्—तुमको; बलिम्—भेंट; हरन्ति—प्रदान करते हैं; ऋषय:—ऋषिगण; ये—जो; च—तथा; देवा:—देवता; स्वयम्—अपने आप; सर्वे—सभी; न—नहीं; भविष्यन्ति— होंगे; अमूला:—बिना जड़ के, निराधार ।.
 
अनुवाद
 
 असुर ने आगे कहा—जब मेरी भुजाओं से फेंकी गई गदा द्वारा तुम्हारा सिर फट जाएगा और तुम मर जाओगे तो वे देवता तथा ऋषि जो तुम्हें भक्तिवश नमस्कार करते तथा भेंट चढ़ाते हैं, स्वत: मृत हो जाएँगे जिस प्रकार बिना जड़ के वृक्ष नष्ट हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 जब देवता शास्त्रोक्त विधि से भगवान् का अर्चन करते हैं, तो असुर अत्यन्त विचलित होते हैं। वेदों में नवजिज्ञासु भक्त के लिए नौ प्रकार की भक्ति बताई गई है—यथा ईश्वर के पवित्र नाम का श्रवण तथा जप, इसका सदा स्मरण, माला में हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जाप, मन्दिरों में श्रीविग्रह रूप में भगवान् की पूजा करना तथा कृष्णभक्ति में संलग्न रहना जिससे संसार में पूर्ण शान्ति के लिए साधु पुरुषों की संख्या में वृद्धि हो। असुरों को ऐसे कार्य पसंद नहीं है। असुर सदैव ईश्वर तथा उनके भक्तों से ईर्ष्या करते हैं। उनका यह प्रचार रहता है कि मन्दिर या गिरजाघर में पूजा न की जाय और इन्द्रिय-तुष्टि के लिए सारी भौतिक उन्नति की जाय। भगवान् को समक्ष पाकर हिरण्याक्ष अपनी शक्तिशाली गदा से उनका वध करके सदा सदा के लिए निश्चिन्त हो जाना चाहता था। यहाँ पर असुर द्वारा जड़विहीन वृक्ष का उदाहरण अत्यन्त सार्थक है। भक्त लोग मानते हैं कि ईश्वर सबों का मूल है। उनका कथन है कि जिस प्रकार उदर शरीर के भरण पोषण के लिए ऊर्जा प्रदान करता है उसी प्रकार ईश्वर भौतिक तथा आध्यात्मिक लोकों में प्रकट होने वाली समस्त ऊर्जा का मूल स्रोत है, अत: जिस प्रकार उदर को भोजन-पूर्ति करने से शरीर के सभी अंग सन्तुष्ट होते हैं उसी प्रकार समस्त सुख के स्रोत को तुष्ट करने का एकमात्र दिव्य साधन कृष्ण की भक्ति है। असुर इस स्रोत को उच्छेदित करना चाहते हैं, क्योंकि यदि मूल रूप भगवान् को रुद्ध कर दिया जाए तो भगवान् तथा भक्तों के सारे कार्यकलाप स्वत: रूक जाएंगे। लेकिन समाज की ऐसी स्थिति से असुरों को अत्यन्त संतोष प्राप्त होता है। वे अपनी इन्द्रियतुष्टि के लिए सदैव ईश्वरविहीन समाज की कामना करते रहते हैं। श्रीधर स्वामी के अनुसार इस श्लोक का अर्थ यह है कि जब श्रीभगवान् असुर को गदाविहीन कर देंगे तो न केवल नवदीक्षित भक्त वरन् ईश्वर के प्राचीन न्याय प्रिय भक्त भी अत्यधिक संतुष्ट होंगे।
 
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