श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 18: भगवान् वराह तथा असुर हिरण्याक्ष के मध्य युद्ध  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.18.7 
तं नि:सरन्तं सलिलादनुद्रुतो
हिरण्यकेशो द्विरदं यथा झष: ।
करालदंष्ट्रोऽशनिनिस्वनोऽब्रवीद्
गतह्रियां किं त्वसतां विगर्हितम् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको; नि:सरन्तम्—बाहर निकलते हुए; सलिलात्—जल से; अनुद्रुत:—पीछा किया गया; हिरण्य-केश:— सुनहले बालों वाला; द्विरदम्—हाथी; यथा—जिस प्रकार; झष:—मकर, घडिय़ाल; कराल-दंष्ट्र:—अत्यन्त भयावने दाँतों वाला; अशनि-निस्वन:—बिजली के समान कडक़ते हुए; अब्रवीत्—बोला; गत-ह्रियाम्—निर्लज्ज; किम्— क्या; तु—निस्सन्देह; असताम्—दुष्टों के लिए; विगर्हितम्—निन्दनीय ।.
 
अनुवाद
 
 सुनहले बालों तथा भयावने दाँतों वाले उस असुर ने जल से निकलते हुए भगवान् का उसी प्रकार पीछा किया जिस प्रकार कोई घडिय़ाल हाथी का पीछा कर रहा हो। उसने बिजली के समान कडक़ कर कहा, “क्या तुम अपने ललकारने वाले प्रतिद्वन्द्वी के समक्ष इस प्रकार भागते हुए लज्जित नहीं हुए हो?” निर्लज्ज प्राणियों के लिए कुछ भी निन्दनीय नहीं है।
 
तात्पर्य
 जब भगवान् पृथ्वी का उद्धार करने के लिए उसको अपनी भुजाओं में लेकर पानी के बाहर आ रहे थे तो उस असुर ने अपमानसूचक शब्दों के द्वारा उनका उपहास किया, किन्तु भगवान् ने इसकी परवाह नहीं की क्योंकि उन्हें अपने कर्तव्य का बोध था। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति के लिए कोई भय नहीं रहता। इसी प्रकार जो शक्तिशाली हैं उन्हें अपने शत्रु के उपहास या कटु वचनों से किसी प्रकार का भय नहीं लगता। भगवान् को किसी से डरने की कोई बात नहीं, तो भी वे अपने शत्रु की उपेक्षा करते हुए उसके प्रति दयालु बने रहे। यद्यपि वे एक प्रकार से ललकार से भाग रहे थे, किन्तु पृथ्वी को संकट से बचाने के उद्देश्य से ही उन्होंने हिरण्याक्ष के व्यंग्य-वचनों को सहन कर लिया।
 
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