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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 19: असुर हिरण्याक्ष का वध  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  3.19.14 
तदोजसा दैत्यमहाभटार्पितं
चकासदन्त:ख उदीर्णदीधिति ।
चक्रेण चिच्छेद निशातनेमिना
हरिर्यथा तार्क्ष्यपतत्रमुज्झितम् ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—वह त्रिशूल; ओजसा—अपनी सारी शक्ति से; दैत्य—असुरों में से; महा-भट—परम योद्धा के द्वारा; अर्पितम्— फेंका हुआ; चकासत्—चमकता हुआ; अन्त:-खे—आकाश के बीच में; उदीर्ण—बढ़ा हुआ; दीधिति—प्रकाश; चक्रेण—सुदर्शनचक्र से; चिच्छेद—खण्ड़ खण्ड़ कर दिये; निशात—तीखी; नेमिना—धार (परिधि); हरि:—इन्द्र; यथा—जिस तरह; तार्क्ष्य—गरुड़ का; पतत्रम्—पंख; उज्झितम्—त्याग दिया ।.
 
अनुवाद
 
 उस परम योद्धा असुर के द्वारा पूरे बल फेंका गया वह त्रिशूल आकाश में तेजी से चमक रहा था। किन्तु श्रीभगवान् ने अपने तेज धार वाले सुदर्शन चक्र से उसके खण्ड- खण्ड कर दिये मानो इन्द्र ने गरुड़ का पंख काट दिया हो।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर आये हुए गरुड़ और इन्द्र का प्रसंग इस प्रकार है। एक बार गरुड़ ने अपनी माँ विनता को सर्पों की माता और अपनी सौतेली माँ कद्रू के चंगुल से छुड़ाने के लिए स्वर्ग में देवताओं से अमृत का पात्र छीन लिया। जब इसका पता चला तो स्वर्ग के राजा इन्द्र ने गरुड़ पर अपना वज्र चलाया। यद्यपि गरुड़ अजेय था, किन्तु इन्द्र के अचूक आयुध का सम्मान करने के लिए तथा स्वयं भगवान् का वाहन होने के कारण उसने अपना वह एक पंख गिरा दिया जो वज्र से चूर-चूर हो गया था। उच्चलोकों के निवासी इतने संवेदनशील होते हैं कि लड़ाई में भी वे भद्रता के नियमों का अनुसरण करते हैं। गरुड़ इन्द्र के प्रति सम्मान व्यक्त करना चाह रहा था और उसे पता था कि इन्द्र के वज्र से कुछ न कुछ नष्ट होना है, अत: उसने अपना एक पंख दे दिया।
 
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