प्रादुष्कृतानां मायानामासुरीणां विनाशयत् ।
सुदर्शनास्त्रं भगवान् प्रायुङ्क्त दयितं त्रिपात् ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
प्रादुष्कृतानाम्—प्रदर्शित; मायानाम्—जादुई शक्तियाँ, इन्द्रजाल; आसुरीणाम्—असुर द्वारा प्रदर्शित; विनाशयत्— विनष्ट करने का इच्छुक; सुदर्शन-अस्त्रम्—सुदर्शन चक्र; भगवान्—श्रीभगवान् ने; प्रायुङ्क्त—फेंका; दयितम्—प्रिय; त्रि-पात्—समस्त यज्ञों के भोक्ता ।.
अनुवाद
तब समस्त यज्ञों के भोक्ता श्रीभगवान् ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा जो असुर द्वारा प्रदर्शित समस्त इन्द्रजाल की शक्तियों (माया जाल) को तहस-नहस करने में समर्थ था।
तात्पर्य
प्रख्यात योगी तथा असुर कभी-कभी अपनी योगशक्ति से अत्यन्त जादुई करामातें दिखलाते हैं, किन्तु जब भगवान् अपने सुदर्शन चक्र को छोड़ देते हैं, तो ये सारे इन्द्रजाल विलुप्त हो जाता है। इस प्रसंग में दुर्वासा मुनि तथा महाराज अम्बरीष के बीच युद्ध का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। दुर्वासा मुनि अनेक आश्चर्यजनक योग-युक्तियाँ दिखाना चाह रहे थे, किन्तु जब सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ तो वे स्वंय डर गये और अपनी रक्षा के लिए विभिन्न लोकों में दौड़ते फिरे। भगवान् को यहाँ पर त्रिपात् कहा गया है, जिसका अर्थ है कि वे तीन प्रकार के यज्ञों के भोक्ता हैं।भगवद्गीता में भगवान् ने स्वयं इसकी पुष्टि की है कि वे समस्त यज्ञों, तपों तथा तपस्याओं के भोक्ता हैं। भगवान् तीन प्रकार के यज्ञों के भोक्ता हैं। भगवद्गीता में आगे यह भी वर्णन आया है कि द्रव्य, ध्यान तथा चिन्तन के भी यज्ञ होते हैं। जो ज्ञान, योग तथा कर्म मार्गों पर चलने वाले हैं उन सबको अन्तत: परमेश्वर के पास जाना होता है, क्योंकि वासुदेव: सर्वम् इति—समस्त वस्तुओं का परम भोक्ता परमेश्वर ही हैं। समस्त यज्ञ की यही सिद्धि है।
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