श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 19: असुर हिरण्याक्ष का वध  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.19.31 
मैत्रेय उवाच
एवं हिरण्याक्षमसह्यविक्रमं
स सादयित्वा हरिरादिसूकर: ।
जगाम लोकं स्वमखण्डितोत्सवं
समीडित: पुष्करविष्टरादिभि: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—श्रीमैत्रेय ने कहा; एवम्—इस प्रकार; हिरण्याक्षम्—हिरण्याक्ष को; असह्य-विक्रमम्—अत्यन्त शक्तिमान; स:—भगवान् ने; सादयित्वा—मारकर; हरि:—श्रीभगवान् ने; आदि-सूकर:—सूकर योनियों का मूल; जगाम—वापस गया; लोकम्—अपने धाम; स्वम्—निजी; अखण्डित—अनवरत्; उत्सवम्—उत्सव; समीडित:— प्रशंसित; पुष्कर-विष्टर—कमल-आसन (कमलासन); आदिभि:—तथा अन्य ।.
 
अनुवाद
 
 श्री मैत्रेय ने आगे कहा—इस प्रकार अत्यन्त भयानक असुर हिरण्याक्ष को मारकर आदि वराह-रूप भगवान् हरि अपने धाम वापस चले गये जहाँ निरन्तर उत्सव होता रहता है। ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं ने भगवान् की प्रशंसा की।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर भगवान् को आदि शूकर कहा गया है। जैसाकि वेदान्त सूत्र (१.१.२) में कहा गया है परम सत्य प्रत्येक वस्तु का मूल है। अत: यह माना जाता है कि समस्त चौरासी लाख योनियाँ भगवान् से उद्भूत हैं, वे ही आदि अथवा प्रारम्भ हैं। भगवद्गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण को आद्यम् अर्थात् आदिकालीन (मूल) कहकर सम्बोधित किया है। इसी प्रकार ब्रह्म-संहिता में भगवान् को आदि-पुरुष कहा गया है। वस्तुत: भगवद्गीता (१०.८) में भगवान् स्वयं कहते हैं—मत्त:सर्वं प्रवर्तते—मुझी से प्रत्येक वस्तु आगे बढ़ती है।

प्रस्तुत स्थिति में हिरण्याक्ष का वध करने तथा पृथ्वी को गर्भ सागर से उठाने के लिए भगवान् ने वराह रूप धारण किया। वे आदि शूकर बने। इस भौतिक संसार में शूकर अत्यन्त गर्हित माना जाता है, किन्तु आदि शूकर अर्थात् श्रीभगवान् को समान्य शूकर नहीं समझा गया।

यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा अन्य देवों तक ने भगवान् के शूकर रूप की प्रशंसा की। इस श्लोक से भगवद्गीता के इस कथन की पुष्टि होती है कि दुष्टों का वध करने और भक्तों की रक्षा के लिए भगवान् अपने दिव्य धाम से अवतरित होते हैं। हिरण्याक्ष को मारकर उन्होंने असुरों को मारने और ब्रह्मा इत्यादि दूसरे देवताओं की रक्षा करने का अपना वचन पूरा किया। यह कथन कि भगवान् अपने धाम को वापस चले गये सूचित करता है कि भगवान् का अपना विशेष दिव्य आवास है। चूँकि वे समस्त शक्तियों से पूर्ण हैं, अत: वे गोलोक वृन्दावन में रहते हुए भी सर्वत्र व्याप्त हैं, ठीक वैसे ही जैसे सूर्य ब्रह्माण्ड के भीतर विशिष्ट स्थान में स्थित होकर समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है।

यद्यपि भगवान् का रहने का विशिष्ट आवास है, तथापि वे सर्वव्यापी हैं। निर्विशेषवादी भगवान् के इस सर्वव्यापी रूप को मानते हैं, किन्तु वे दिव्य आवास में स्थित उनके पद को नहीं समझ पाते, जहाँ वे निरन्तर दिव्य लीलाओं में संलग्न रहते हैं। इस श्लोक में आगत अखण्डितोत्सवम् शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण है। उत्सव का अर्थ है ‘आनन्द’। जब भी प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए कोई कार्य किया जाता है, तो वह उत्सव कहलाता है। उत्सव पूर्ण प्रसन्नता का सूचक है और यह भगवान् के धाम वैकुण्ठलोक में सदैव विद्यमान रहता है। भगवान् जब ब्रह्मा जैसे देवताओं द्वारा पूजित हैं, तो मनुष्यों जैसी नगण्य आत्माओं का क्या कहना है।

भगवान् अपने धाम से इस धरा पर उतरते हैं इसीलिए उन्हें अवतार कहा जाता है। कभी- कभी अवतार से भौतिक रूप या जीता जागता हाड़-मांस युक्त रूप समझा जाता है, किन्तु वास्तव में अवतार वह व्यक्ति है, जो उच्चतर प्रक्षेत्रों से नीचे उतरता है। भगवान् का धाम भौतिक आकाश से ऊपर बहुत ऊँचाई पर है और वे उस उच्च पद से नीचे उतरते हैं; इसीलिए अवतार कहलाते हैं।

 
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