एतत्—यह आख्यान; महा-पुण्यम्—पुण्यप्रद; अलम्—अत्यन्त; पवित्रम्—पवित्र; धन्यम्—धन देनेवाला; यशस्यम्—यश की प्राप्ति करने वाला; पदम्—पात्र, भाजन; आयु:—दीर्घजीविता का; आशिषाम्—कामनाओं का; प्राण—जीवनदाता अंगों का; इन्द्रियाणाम्—कर्मेन्द्रियों का; युधि—युद्धभूमि में; शौर्य—पराक्रम; वर्धनम्—बढ़ाने वाला; नारायण:—भगवान् नारायण; अन्ते—जीवन के अन्त में; गति:—शरण; अङ्ग—हे शौनक; शृण्वताम्— श्रोताओं का ।.
अनुवाद
यह परम पवित्र आख्यान (चरित्र) अद्वितीय यश, सम्पत्ति, ख्याति, आयुष्य तथा मनवांछित फल देने वाला है। युद्ध भूमि में यह मनुष्य के प्राणों तथा कर्मेन्द्रियों की शक्ति वर्धित करने वाला है। हे शौनक, जो अपने अन्तकाल में इसे सुनता है, वह भगवान् के परम धाम को जाता है।
तात्पर्य
भक्त सामान्य रूप से भगवान् की लीलाओं के आख्यानों से आकृष्ट होते रहते हैं और तपस्या या ध्यान न करने पर भी इन लीलाओं के श्रवण मात्र से अनेक लाभ यथा सम्पत्ति, ख्याति, आयुष्य तथा जीवन की अन्य मनोकामनाएँ प्राप्त करते रहते हैं। यदि कोई अपने जीवन के अन्तकाल में भगवान् की लीलाओं के आख्यानों से परिपूर्ण श्रीमद्भागवत का श्रवण करता रहता है, तो वह निश्चित रूप से भगवान् के शाश्वतधाम को जाता है। इस प्रकार श्रोताओं को जब तक वे इस भौतिक लोक में रहते हैं तब भी और अन्त-समय में भी लाभ प्राप्त होता है। भक्ति करने का यही परम शुद्ध लाभ है। भक्ति का शुभारम्भ इसीसे होता है कि समय निकाल कर सही व्यक्ति से श्रीमद्भागवत का श्रवण किया जाय। श्रीचैतन्य महाप्रभु भी भक्ति की पाँच बातों की संस्तुति करते हैं। ये हैं भगवद्भक्तों की सेवा, हरे कृष्ण मन्त्र का जप, श्रीमद्भागवत का श्रवण, भगवान् के श्रीविग्रह की अर्चना तथा तीर्थस्थान में वास। इन पाँचों कृत्यों के करने मात्र से मनुष्य भौतिक जीवन की कष्टमय अवस्था से उबर सकता है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कन्ध के अन्तर्गत “असुर हिरण्याक्ष का वध” नामक उन्नीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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