श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 19: असुर हिरण्याक्ष का वध  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.19.7 
स तं निशाम्यात्तरथाङ्गमग्रतो
व्यवस्थितं पद्मपलाशलोचनम् ।
विलोक्य चामर्षपरिप्लुतेन्द्रियो
रुषा स्वदन्तच्छदमादशच्छ्‌वसन् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
स:—उस असुर ने; तम्—श्रीभगवान् को; निशाम्य—देखकर; आत्त-रथाङ्गम्—सुदर्शन चक्र धारण किए हुए; अग्रत:—समक्ष; व्यवस्थितम्—खड़े हुए; पद्म—कमल-पुष्प; पलाश—पंखडिय़ाँ; लोचनम्—नेत्र; विलोक्य— देखकर; च—यथा; अमर्ष—क्रोध से; परिप्लुत—तिलमिलाई हुई; इन्द्रिय:—उसकी इन्द्रियाँ; रुषा—अत्यन्त रोष से; स्व-दन्त-छदम्—अपने ही होंठ; आदशत्—काट लिया; श्वसन्—फुफकारता ।.
 
अनुवाद
 
 जब असुर ने कमल की पंखडिय़ों जैसे नेत्र वाले श्रीभगवान् को सुदर्शन चक्र से युक्त अपने समक्ष खड़ा देखा तो क्रोध के मारे उसके अंग तिलमिला उठे। वह साँप की तरह फुफकारने लगा और अत्यन्त क्रोध में अपने ही होठ चबाने लगा।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥