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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  3.2.11 
प्रदर्श्यातप्ततपसामवितृप्तद‍ृशां नृणाम् ।
आदायान्तरधाद्यस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
प्रदर्श्य—दिखलाकर; अतप्त—बिना किये; तपसाम्—तपस्या; अवितृप्त-दृशाम्—दर्शन को पूरा किया; नृणाम्—लोगों का; आदाय—लेकर; अन्त:—अन्तर्धान; अधात्—सम्पन्न किया; य:—जिसने; तु—लेकिन; स्व-बिम्बम्—अपने ही स्वरूप को; लोक-लोचनम्—सार्वजनिक दृष्टि में ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् श्रीकृष्ण, जिन्होंने पृथ्वी पर सबों की दृष्टि के समक्ष अपना नित्य स्वरूप प्रकट किया था, अपने स्वरूप को उन लोगों की दृष्टि से हटाकर अन्तर्धान हो गये जो वांछित तपस्या न कर सकने के कारण उन्हें यथार्थ रूप में देख पाने में असमर्थ थे।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में अवितृप्त-दृशाम् शब्द अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भौतिक जगत में बद्धात्माएँ विविध प्रकार से अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने में लगी हुई हैं, किन्तु वे वैसा करने में असफल रही हैं, क्योंकि ऐसे प्रयासों से तुष्ट हो पाना असम्भव है। स्थल पर मछली का दृष्टान्त अत्यन्त उपयुक्त है। यदि कोई मछली को पानी से बाहर निकाल कर स्थल पर रख देता है, तो वह सुखी नहीं रह पाती चाहे उसे कितना ही आनन्द क्यों न प्रदान किया जाय। आत्मा परम पुरुष भगवान् के ही सान्निध्य में सुखी रह सकता है, अन्यत्र नहीं। भगवान् की असीम अहैतुकी कृपा से उनके पास आध्यात्मिक जगत में ब्रह्मज्योति मण्डल में असंख्य वैकुण्ठलोक और उस दिव्य जगत में जीवों के असीम आनन्द के लिए अनन्त व्यवस्था है।

भगवान् स्वयं अपनी उन दिव्य लीलाओं को प्रदर्शित करने के लिए आते हैं, जो विशेष रूप से वृन्दावन, मथुरा तथा द्वारका में सम्पन्न की जाती हैं। वे बद्धात्माओं को शाश्वत लोक भगवद्धाम के लिए आकृष्ट करने हेतु प्रकट होते हैं। किन्तु पर्याप्त पुण्य के अभाव में दर्शकगण भगवान् की ऐसी लीलाओं के प्रति आकृष्ट नहीं होते। भगवद्गीता में कहा गया है कि जिन्होंने पापमार्ग को पूरी तरह लाँघ लिया है, वे ही भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में अपने को लगा सकते हैं। सम्पूर्ण वैदिक कर्मकाण्ड का उद्देश्य प्रत्येक बद्धात्मा को पुण्य मार्ग पर लगाना है। समस्त वर्णों के लिए नियत नियमों का कड़ाई से पालन करने पर मनुष्य सत्य, मनोनिग्रह, इन्द्रियनिग्रह, धैर्य इत्यादि गुणों को प्राप्त कर सकता है और भगवान् की शुद्ध भक्ति करने के पद तक उठ सकता है। ऐसी दिव्य दृष्टि से ही मनुष्य की भौतिक लालसाएँ पूर्णतया तुष्ट हो सकती हैं।

जब भगवान् विद्यमान थे तो जो लोग उन्हें असली रूप में देखने की अपनी भौतिक लालसा पूरी कर सके वे उन के साथ भगवद्धाम वापस जा सके। किन्तु जो लोग भगवान् को यथारूप में नहीं देख पाये वे भौतिक लालसाओं से बद्ध रहे और भगवद्धाम वापस नहीं जा सके। जब भगवान् सबों की दृष्टि से परे चले गये तो उन्होंने अपने आदि नित्य रूप में ऐसा किया जैसाकि इस श्लोक में कहा गया है। उन्होंने सशरीर प्रयाण किया। उन्होंने अपना शरीर छोड़ा नहीं जैसाकि बद्धात्माएँ सामान्य रूप से गलती से समझती हैं। यह कथन उन श्रद्धाविहीन अभक्तों के इस मिथ्या प्रचार को झुठला देता है कि भगवान् सामान्य बद्धात्मा की तरह दिवगंत हुए। भगवान् इस जगत से अविश्वासी असुरों का अनुचित भार हटाने के लिए प्रकट हुए थे और ऐसा करने के बाद संसार की दृष्टि से ओझल हो गये।

 
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