श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  3.2.12 
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग-
मायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धे:
परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—उनका जो नित्यरूप; मर्त्य—मर्त्यजगत; लीला-उपयिकम्—लीलाओं के लिए उपयुक्त; स्व-योग-माया-बलम्—अन्तरंगा शक्ति का बल; दर्शयता—अभिव्यक्ति के लिए; गृहीतम्—ढूँढ निकाला; विस्मापनम्—अद्भुत; स्वस्य—अपना; च—तथा; सौभग-ऋद्धे:—ऐश्वर्यवान् का; परम्—परम; पदम्—गन्तव्य; भूषण—आभूषण; भूषण-अङ्गम्—आभूषणों का ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति योगमाया के द्वारा मर्त्यलोक में प्रकट हुए। वे अपने नित्य रूप में आये जो उनकी लीलाओं के लिए उपयुक्त है। ये लीलाएँ सबों के लिए आश्चर्यजनक थीं, यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिन्हें अपने ऐश्वर्य का गर्व है, जिसमें वैकुण्ठपति के रूप में भगवान् का स्वरूप भी सम्मिलित है। इस तरह उनका (श्रीकृष्ण का) दिव्य शरीर समस्त आभूषणों का आभूषण है।
 
तात्पर्य
 वैदिक स्रोतों के अनुसार—(नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्) भगवान् भौतिक जगत में समस्त ब्रह्माण्डों के भीतर के अन्य सारे जीवों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट हैं। वे समस्त जीवों में प्रधान हैं। धन, बल, यश, सौन्दर्य, ज्ञान अथवा त्याग के क्षेत्र में न तो कोई उनके समकक्ष है न उनसे बढक़र है। जब भगवान् कृष्ण इस ब्रह्माण्ड में थे तो वे मनुष्य प्रतीत होते थे, क्योंकि वे मर्त्यलोक की अपनी लीलाओं के लिए उपयुक्त रूप में प्रकट हुए थे। वे मानव समाज में अपने चतुर्भुजी वैकुण्ठ स्वरूप में प्रकट नहीं हुए, क्योंकि यह स्वरूप उनकी लीलाओं के उपयुक्त न होता। किन्तु मनुष्य के रूप में प्रकट होते हुए भी कोई व्यक्ति विविध षडैश्वर्यों में से किसी एक में भी न तो उनके तुल्य था, न है। हर व्यक्ति इस जगत में अपने ऐश्वर्य के प्रति न्यूनाधिक गर्वित रहता है, किन्तु जब भगवान् कृष्ण मानव समाज में थे तो वे ब्रह्माण्ड में अपने समस्त समकालीन व्यक्तियों से बढक़र थे।

जब भगवान् की लीलाएँ मनुष्य को दृष्टिगोचर होती हैं, तो वे प्रकट कहलाती हैं और जब वे दृष्टिगोचर नहीं होतीं तो अप्रकट कहलाती हैं। वस्तुत: भगवान् की लीलाएँ कभी नहीं रुकतीं जिस तरह सूर्य कभी आकाश को नहीं छोड़ता। सूर्य सदैव आकाश में सही कक्ष्या पर बना रहता है, किन्तु हमारी सीमित दृष्टि में वह कभी दिखता है, तो कभी ओझल रहता है। इसी तरह भगवान् की लीलाएँ सदैव किसी न किसी ब्रह्माण्ड में चलती रहती हैं। जब कृष्ण द्वारका के दिव्य धाम से अन्तर्धान हो गये तो यह वहाँ के लोगों की आँखों से उनका ओझल होना था। इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि उनका दिव्य शरीर जो मर्त्यलोक की लीलाओं के लिए उपयुक्त था, वैकुण्ठलोक में उनके विभिन्न अंशों से किसी तरह निकृष्ट था। भौतिक जगत में प्रकट होने वाला उनका शरीर इस बात में सर्वोत्कृष्ट है कि मर्त्यलोक में उनकी लीलाएँ वैकुण्ठलोक में प्रदर्शित उनकी कृपा से बढक़र हैं। वैकुण्ठलोक में भगवान् मुक्त या नित्यमुक्त जीवों के प्रति ही दयालु होते हैं, किन्तु मर्त्य जगत की अपनी लीलाओं में वे उन पतितात्माओं पर भी दयालु होते हैं, जो नित्यबद्ध हैं। मर्त्यलोक में अपनी अन्तरंगा शक्ति या योगमाया के द्वारा प्रदर्शित षड् ऐश्वर्य वैकुण्ठलोक तक में दुर्लभ हैं। उनकी समस्त लीलाएँ किसी भौतिक शक्ति द्वारा नहीं, अपितु आध्यात्मिक शक्ति द्वारा प्रदर्शित की गई थीं। वृन्दावन में उनकी रासलीला की अनुपमता तथा सोलह हजार पत्नियों के साथ उनका गृहस्थ जीवन वैकुण्ठ में नारायण के लिए भी आश्चर्यजनक है और इस मर्त्यलोक के अन्य जीवों के लिए भी निश्चित रूप से ऐसा ही है। उनकी लीलाएँ भगवान् के अन्य अवतारों के लिए भी, यथा श्रीराम, नृसिंह तथा वराह के लिए भी, आश्चर्यजनक हैं। उनका ऐश्वर्य इतना सर्वोत्कृष्ट था कि उनकी लीलाओं की प्रशंसा वैकुण्ठ के स्वामी द्वारा भी की गई जो कि स्वयं भगवान् कृष्ण से भिन्न नहीं हैं।

 
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