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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.2.13 
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये
निरीक्ष्य द‍ृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोक: ।
कार्त्स्‍न्येन चाद्येह गतं विधातु-
रर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—जो रूप; धर्म-सूनो:—महाराज युधिष्ठिर के; बत—निश्चय ही; राजसूये—राजसूय यज्ञ शाला में; निरीक्ष्य—देखकर; दृक्—दृष्टि; स्वस्त्ययनम्—मनोहर; त्रि-लोक:—तीनों लोक के; कार्त्स्न्येन—सम्पूर्णत:; —इस तरह; अद्य—आज; इह—इस ब्रह्माण्ड के भीतर; गतम्—पार करके; विधातु:—स्रष्टा (ब्रह्मा) का; अर्वाक्—अर्वाचीन मानव; सृतौ—भौतिक जगत में; कौशलम्—दक्षता; इति—इस प्रकार; अमन्यत—सोचा ।.
 
अनुवाद
 
 महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न किये गये राजसूय यज्ञ शाला में उच्चतर, मध्य तथा अधोलोकों से सारे देवता एकत्र हुए। उन सबों ने भगवान् कृष्ण के सुन्दर शारीरिक स्वरूप को देखकर विचार किया कि वे मनुष्यों के स्रष्टा ब्रह्मा की चरम कौशलपूर्ण सृष्टि हैं।
 
तात्पर्य
 जब भगवान श्रीकृष्ण इस जगत में वर्तमान थे तो उनके शारीरिक स्वरूप की तुलना करने वाली कोई वस्तु नहीं थी। भौतिक जगत के सुन्दरतम पदार्थ की तुलना नीले कमल से या आकाश में पूर्ण चन्द्रमा से की जा सकती है, किन्तु कमल तथा चन्द्रमा भी कृष्ण के शारीरिक सौन्दर्य के समक्ष पराजित हो जाते थे जिसकी पुष्टि ब्रह्माण्ड के सबसे सुन्दर प्राणियों अर्थात् देवताओं द्वारा की गई। देवताओं ने सोचा कि उन्हीं की तरह भगवान् कृष्ण भी ब्रह्मा द्वारा सृजित हुए हैं। जब कि तथ्य यह है कि ब्रह्मा का सृजन भगवान् कृष्ण द्वारा हुआ। भगवान् के दिव्य सौन्दर्य का सर्जन करना ब्रह्मा की शक्ति में न था। कोई भी व्यक्ति कृष्ण का स्रष्टा नहीं है, प्रत्युत वे हर एक के स्रष्टा हैं। भगवद्गीता (१०.८) में कहा गया है—अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते ।
 
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