जब मैं भगवान् कृष्ण के बारे में सोचता हूँ कि वे अजन्मा होते हुए किस तरह वसुदेव के बन्दीगृह में उत्पन्न हुए थे, किस तरह अपने पिता के संरक्षण से व्रज चले गये और वहाँ शत्रु-भय से प्रच्छन्न रहते रहे तथा किस तरह असीम बलशाली होते हुए भी वे भयवश मथुरा से भाग गये—ये सारी भ्रमित करने वाली घटनाएँ मुझे पीड़ा पहुँचाती हैं।
तात्पर्य
चूँकि श्रीकृष्ण आदि पुरुष हैं जिनसे सारी वस्तुएँ और सारे जीव उद्भूत हुए हैं—अहं सर्वस्य प्रभव: (भगवद्गीता १०.८), जन्माद्यस्य यत: (वेदान्त सूत्र १.१.२) अतएव उनके तुल्य या उनसे बढक़र कोई वस्तु नहीं हो सकती। भगवान् परम पूर्ण हैं और जब भी वे पुत्र, प्रतिद्वन्द्वी या शत्रुवत् अपनी दिव्यलीला करते हैं, तो वे अपनी भूमिका इतनी पूर्णता से निभाते हैं कि उद्धव जैसे शुद्ध भक्त भी मोहग्रस्त हो उठते हैं। उदाहरणार्थ, उद्धव यह भलीभाँति जानते थे कि श्रीकृष्ण नित्य विद्यमान रहते हैं और वे सदा के लिए कभी न तो मर सकते हैं न विलुप्त हो सकते हैं फिर भी वे कृष्ण के लिए शोक कर रहे थे। ये सारी घटनाएँ उनके परम यश को पूर्णता प्रदान करने के लिए मानो पूर्ण व्यवस्थाएँ हैं। यह सब आनन्द के निमित्त है। जब पिता अपने नन्हें बेटे के साथ खेलता है और वह जमीन पर लेट जाता है मानो बेटे द्वारा पराजित हो गया हो तो यह केवल उस नन्हें बेटे को आनन्द प्रदान करने के लिए है और कुछ नहीं। चूँकि भगवान् सर्वशक्तिमान हैं, अतएव वे जन्म-अजन्म, शक्ति तथा पराजय, भय तथा अभय जैसे विलोमों को समंजित कर सकते हैं। एक शुद्ध भक्त भली भाँति जानता है कि भगवान् के लिए विरोधाभासों को समंजित करना कैसे सम्भव है, किन्तु वह उन अभक्तों के लिए शोक करता है, जो भगवान् के परम यशों को न जानते हुए उन्हें इसलिए काल्पनिक सोचते हैं क्योंकि शास्त्रों में ऊपरी तौर पर अनेक विरोधी कथन पाये जाते हैं। वस्तुत: कुछ भी विरोध-मूलक नहीं है। जब हम भगवान् को भगवान् के रूप में समझ लेते हैं और अपूर्णताओं से युक्त अपने समान उन्हें नहीं मानते, तो सब कुछ सम्भव हो जाता है।
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