श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.2.18 
को वा अमुष्याङ्‌घ्रि सरोजरेणुं
विस्मर्तुमीशीत पुमान् विजिघ्रन् ।
यो विस्फुरद्भ्रूविटपेन भूमे-
र्भारं कृतान्तेन तिरश्चकार ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
क:—और कौन; वा—अथवा; अमुष्य—भगवान् के; अङ्घ्रि—पाँव; सरोज-रेणुम्—कमल की धूल; विस्मर्तुम्—भुलाने के लिए; ईशीत—समर्थ हो सके; पुमान्—मनुष्य; विजिघ्रन्—सूँघते हुए; य:—जो; विस्फुरत्—विस्तार करते हुए; भ्रू-विटपेन— भौहों की पत्तियों के द्वारा; भूमे:—पृथ्वी का; भारम्—भार; कृत-अन्तेन—मृत्यु प्रहारों से; तिरश्चकार—सम्पन्न किया ।.
 
अनुवाद
 
 भला ऐसा कौन होगा जो उनके चरणकमलों की धूल को एकबार भी सूँघ कर उसे भुला सके? कृष्ण ने अपनी भौहों की पत्तियों को विस्तीर्ण करके उन लोगों पर मृत्यु जैसा प्रहार किया है, जो पृथ्वी पर भार बने हुए थे।
 
तात्पर्य
 भगवान् कृष्ण को मनुष्य नहीं माना जा सकता, भले ही उन्होंने आज्ञाकारी पुत्र की भूमिका ही क्यों न निबाही हो। उनके कार्य इतने असामान्य थे कि केवल अपनी भौंहों को उठाकर वे उन लोगों पर मृत्यु-प्रहार कर सके जो पृथ्वी पर भार बने हुए थे।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥