वे अपने बचपन में ही जब पाँच वर्ष के थे तो भगवान् कृष्ण की सेवा में इतने लीन हो जाते थे कि जब उनकी माता प्रात:कालीन कलेवा करने के लिए बुलातीं तो वे कलेवा करना नहीं चाहते थे।
तात्पर्य
अपने जन्म से ही उद्धव भगवान् कृष्ण के सहज भक्त अर्थात् नित्य-सिद्ध, मुक्त-आत्मा थे। वे अपने बचपन में भी स्वाभाविक अन्त:प्रेरणा के कारण कृष्ण की सेवा करते थे। वे कृष्ण के स्वरूप वाले गुड्डों से खेला करते, उन्हें वस्त्र पहनाते, खिलाते और पूजा किया करते। इस तरह वे दिव्य साक्षात्कार की क्रीड़ा में निरन्तर लीन रहते। ये ही सब नित्य मुक्तात्मा के लक्षण हैं। नित्य मुक्तात्मा भगवान् का भक्त होता है, जो उनको कभी नहीं भुलाता। मानव जीवन भगवान् के साथ अपने नित्य सम्बन्ध को पुनर्जागृत करने के लिए होता है और सारे धार्मिक आदेश जीव की इस सुप्त अन्त: प्रेरणा को जागृत करने के लिए होते हैं। यह जागृति जितनी ही जल्दी लाई जा सके उतनी ही तेजी से मानव जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। भक्तों के अच्छे परिवार में बालक को भगवान् की सेवा करने का अनेक प्रकार से अवसर मिलता है। ऐसा व्यक्ति जो पहले से भक्ति में प्रगति कर चुका होता है, उसे ऐसे प्रबुद्ध परिवार में जन्म लेने का अवसर प्राप्त होता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (६.४१) में हुई है—शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते—पतित भक्त को भी सुसम्पन्न ब्राह्मण परिवार में, या धनी वैश्य परिवार में जन्म लेने का अवसर प्राप्त होता है। इन दोनों परिवारों में ईश-भावनामृत के अपने बोध को स्वत: पुनरुज्जीवित करने का अच्छा अवसर रहता हैं, क्योंकि इन परिवारों में नियमित रूप से भगवान् कृष्ण की पूजा की जाती है और बालक को पूजाविधि अर्थात् अर्चना का अनुकरण करने का सुअवसर प्राप्त होता है।
भक्ति में लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए पाञ्चरात्रिकी विधि मन्दिर पूजा है, जिसके द्वारा नवदीक्षितों को भगवद्भक्ति सीखने का अवसर मिलता है। महाराज परीक्षित भी अपने बचपन में कृष्ण के गुड्डों से खेला करते थे। अब भी भारत में अच्छे परिवारों में बच्चों को खेलने के लिए राम तथा कृष्ण के खिलौने या कभी-कभी देवताओं के खिलौने दिये जाते हैं जिससे उनमें भगवान् की सेवा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो। भगवत्कृपा से हमें भी हमारे माता-पिता ने ऐसा ही सुअवसर प्रदान किया और हमारे जीवन का शुभारम्भ इसी सिद्धान्त पर आधारित था।
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