श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.2.22 
तत्तस्य कैङ्कर्यमलं भृतान्नो
विग्लापयत्यङ्ग यदुग्रसेनम् ।
तिष्ठन्निषण्णं परमेष्ठिधिष्ण्ये
न्यबोधयद्देव निधारयेति ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—इसलिए; तस्य—उसकी; कैङ्कर्यम्—सेवा; अलम्—निस्सन्देह; भृतान्—सेवकों को; न:—हम; विग्लापयति—पीड़ा देती है; अङ्ग—हे विदुर; यत्—जितनी कि; उग्रसेनम्—राजा उग्रसेन को; तिष्ठन्—बैठे हुए; निषण्णम्—सेवा में खड़े; परमेष्ठि धिष्ण्ये—राजसिंहासन पर; न्यबोधयत्—निवेदन किया; देव—मेरे प्रभु को सम्बोधित करते हुए; निधारय—आप जान लें; इति—इस प्रकार ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव हे विदुर, क्या उनके सेवकगण हम लोगों को पीड़ा नहीं पहुँचती जब हम स्मरण करते हैं कि वे (भगवान् कृष्ण) राजसिंहासन पर आसीन राजा उग्रसेन के समक्ष खड़े होकर, “हे प्रभु, आपको विदित हो कि” यह कहते हुए सारे स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते थे।
 
तात्पर्य
 अपने तथाकथित गुरुजनों, यथा अपने पिता, बाबा तथा ज्येष्ठ भाई, के समक्ष भगवान् कृष्ण का भद्र व्यवहार, अपनी तथाकथित पत्नियों, मित्रों तथा समसामयिकों के साथ मिलनसार आचरण, अपनी माता यशोदा के समक्ष शिशु रूप में उनका व्यवहार तथा अपनी तरुणी सखियों के प्रति उनका नटखट व्यवहार, उद्धव जैसे शुद्ध भक्त को मोहित नहीं कर सकता। अन्य लोग जो कि भक्त नहीं हैं, मनुष्य जैसा आचरण करने वाले भगवान् के ऐसे व्यवहार से मोहित हो उठते हैं। भगवान् ने स्वयं भगवद्गीता (९.११) में ऐसे मोह की व्याख्या निम्न प्रकार से की है—

अवजानन्ति मां मूढा: मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।

अल्पज्ञ व्यक्ति भगवान् कृष्ण के इस उच्च पद को कि वे हर वस्तु के स्वामी हैं, न जानते हुए भगवान् को कम महत्त्व का बताते हैं। भगवद्गीता में भगवान् ने अपने पद की स्पष्टतया व्याख्या की है, किन्तु आसुरी नास्तिक अध्येता अपने निजी उद्देश्य से मनमानी व्याख्या निकाल लेता है और अभागे अनुयायियों को उसी मनोवृत्ति में भटकाता बनाता है। ऐसे अभागे व्यक्ति ज्ञान के महान् ग्रंथ में से मात्र कुछ नारे चुन लेते हैं, किन्तु भगवान् का सही आकलन करने में असमर्थ रहते हैं। किन्तु उद्धव जैसे शुद्ध भक्त कभी भी ऐसे नास्तिक अवसरवादियों द्वारा गुमराह नहीं बनाये जा सकते।

 
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