श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.2.23 
अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—ओह; बकी—असुरिनी (पूतना); यम्—जिसको; स्तन—अपने स्तन में; काल—घातक; कूटम्—विष; जिघांसया— ईर्ष्यावश; अपाययत्—पिलाया; अपि—यद्यपि; असाध्वी—कृतघ्न; लेभे—प्राप्त किया; गतिम्—गन्तव्य; धात्री-उचिताम्— धाई के उपयुक्त; तत:—जिसके आगे; अन्यम्—दूसरा; कम्—अन्य कोई; वा—निश्चय ही; दयालुम्—कृपालु; शरणम्— शरण; व्रजेम—ग्रहण करूँगा ।.
 
अनुवाद
 
 ओह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी (पूतना) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था?
 
तात्पर्य
 यहाँ पर अपने शत्रु पर भी भगवान् की चरम कृपा का उदाहरण मिलता है। कहा जाता है कि नेक पुरुष संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्ति के भी सद्गुणों को स्वीकार करता है, जिस तरह विष के आगार से अमृत ले लिया जाता है। कृष्ण को बाल्यकाल में पूतना नामक असुरिनी ने घातक विष पिलाया था, क्योंकि वह इस अद्भुत शिशु को मार डालना चाहती थी। चूँकि वह असुरिनी थी, इस कारण से उसके लिए यह जान पाना असम्भव था कि भगवान् शिशु की भूमिका निभाते हुए भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से कम न थे। अपनी भक्त यशोदा को प्रसन्न करने के लिए उनका शिशु बनने से भगवान् का मान घटा नहीं। भगवान् चाहे शिशु का रूप धारण करें या मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई रूप धारण करें, इससे तनिक भी अन्तर नहीं पड़ता। वे सदैव वही ब्रह्म बने रहते हैं। कोई सजीव प्राणी अपनी कठिन तपस्या के बल पर कितना ही शक्तिशाली क्यों न बन जाए किन्तु वह कभी भी भगवान् के तुल्य नहीं हो सकता।

भगवान् कृष्ण ने पूतना का मातृत्व स्वीकार किया, क्योंकि उसने स्नेहिल माता का स्वाँग करते हुए कृष्ण को अपना स्तन पीने दिया। भगवान् जीव की न्यूनतम योग्यता स्वीकार करते हैं और उसे सबसे बड़ा पुरस्कार प्रदान करते हैं। उनके चरित्र का यही मानदण्ड है। अतएव भगवान् के अतिरिक्त दूसरा कौन परम आश्रय हो सकता है?

 
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