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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  3.2.24 
मन्येऽसुरान् भागवतांस्त्र्यधीशे
संरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान् ।
ये संयुगेऽचक्षत तार्क्ष्यपुत्र-
मंसे सुनाभायुधमापतन्तम् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
मन्ये—मैं सोचता हूँ; असुरान्—असुरों को; भागवतान्—महान् भक्तों को; त्रि-अधीशे—तीन के स्वामी को; संरम्भ—शत्रुता; मार्ग—मार्ग से होकर; अभिनिविष्ट-चित्तान्—विचारों में मग्न; ये—जो; संयुगे—युद्ध में; अचक्षत—देख सका; तार्क्ष्य-पुत्रम्— भगवान् के वाहन गरुड़ को; अंसे—कन्धे पर; सुनाभ—चक्र; आयुधम्—हथियार धारण करनेवाला; आपतन्तम्—सामने आता हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 मैं उन असुरों को जो भगवान् के प्रति शत्रुभाव रखते हैं, भक्तों से बढक़र मानता हूँ, क्योंकि शत्रुता के भावों से भरे वे सभी युद्ध करते हुए भगवान् को तार्क्ष्य (कश्यप) पुत्र गरुड़ के कन्धों पर बैठे तथा अपने हाथ में चक्रायुध लिए देख सकते हैं।
 
तात्पर्य
 जिन असुरों ने भगवान् से आमने-सामने युद्ध किया, उन्होंने भगवान् द्वारा मारे जाने के कारण मोक्ष प्राप्त किया। असुरों का यह मोक्ष उनके भगवद्भक्त होने के कारण नहीं है, अपितु भगवान् की अहैतुकी कृपा के परिणामस्वरूप है। जो कोई भगवान् के तनिक भी सम्पर्क में आता है, वह भगवान् की सर्वोत्कृष्टता के कारण मोक्ष तक का महानतम लाभ पा लेता है। वे इतने दयालु हैं कि अपने शत्रुओं तक को मोक्ष प्रदान करते हैं, क्योंकि वे लोग उनके सम्पर्क में आते हैं और अपने शत्रुवत् विचारों के कारण अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् में लीन रहते हैं। वस्तुत: असुरगण कभी भी भक्तों के तुल्य नहीं हो सकते, किन्तु उद्धव विछोह-भावना के कारण उस तरह से सोच रहे थे। वे सोच रहे थे कि अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में हो सकता है कि वे भगवान् को अपने समक्ष न देख सकें जिन्हें देखने का अवसर असुरों तक को मिला था। तथ्य तो यह है कि जो भक्त सदैव भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे रहकर उन्हें आध्यात्मिक लोकों में भेजे जाने से वे असुरों की अपेक्षा लाखों गुना अधिक पुरस्कृत होते हैं जहाँ वे भगवान् के साथ नित्य आनन्दमय जीवन बिताते हैं। असुरों तथा निर्विशेषवादियों को भगवान् की ब्रह्मज्योति में लीन होने की सुविधा प्रदान की जाती है, जबकि भक्तों को आध्यात्मिक लोक में प्रवेश करने दिया जाता है। तुलना के लिए आकाश में तैरत रहने और आकाश के किसी लोक में निवास करने में जो अन्तर है उसकी कल्पना की जा सकती है। इन लोकों में जीवों का आनन्द उनकी तुलना में अधिक होता है जिनके कोई शरीर नहीं होता (अशरीरी) और जो सूर्य की किरणों के अणुओं में लीन हो जाते हैं। इसलिए भगवान् द्वारा निर्विशेषवादियों पर अपने शत्रुओं की अपेक्षा अधिक कृपा नहीं की जाती, प्रत्युत दोनों ही आध्यात्मिक मोक्ष के समान स्तर पर होते हैं।
 
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