तत:—तत्पश्चात्; नन्द-व्रजम्—नन्द महाराज के चरागाहों में; इत:—पाले-पोषे जाकर; पित्रा—अपने पिता द्वारा; कंसात्—कंस से; विबिभ्यता—भयभीत होकर; एकादश—ग्यारह; समा:—वर्ष; तत्र—वहाँ; गूढ-अर्चि:—प्रच्छन्न अग्नि; स-बल:—बलराम सहित; अवसत्—रहे ।.
अनुवाद
तत्पश्चात् कंस से भयभीत होकर उनके पिता उन्हें नन्द महाराज के चरागाहों में ले आये जहाँ वे अपने बड़े भाई बलदेव सहित ढकी हुई अग्नि की तरह ग्यारह वर्षों तक रहे।
तात्पर्य
प्रकट होते ही भगवान् को मार डालने के कंस के संकल्प के भय से उन्हें नन्द महाराज के घर भेज देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह असुरों का ही कार्य होता है कि भगवान् को मार डालने का प्रयास करें या सभी प्रकार से यह सिद्ध करें कि ईश्वर नहीं है या कि कृष्ण सामान्य मनुष्य हैं और वे ईश्वर नहीं हैं। भगवान् कृष्ण कंस जैसे व्यक्तियों के ऐसे संकल्प से तनिक भी प्रभावित नहीं होते, किन्तु शिशु की भूमिका के निर्वाह हेतु उन्होंने अपने पिता द्वारा नन्द महाराज के चरागाहों तक ले जाया जाना स्वीकार किया, क्योंकि वसुदेव कंस से भयभीत थे। महाराज नन्द को अपने पुत्र रूप में उन्हें प्राप्त करना ही था और यशोदा माई को भी भगवान् की बाल-लीलाओं का आनन्द लेना था, इसलिए सबों की इच्छापूर्ति हेतु कंस के बंदीगृह में उनके आविर्भाव के तुरन्त बाद उन्हें मथुरा से वृन्दावन ले जाया गया। वे वहाँ ग्यारह वर्षों तक रहे और उन्होंने अपने बड़े भाई तथा अपने प्रथम अंश बलदेव के साथ बाल्यकाल, कुमारावस्था तथा किशोरावस्था की मनोहारी लीलाएँ पूरी कीं। कंस के क्रोध से कृष्ण की रक्षा करने का वसुदेव का विचार दिव्य सम्बन्ध का एक अंश है। भगवान् को तब अधिक आनन्द प्राप्त होता है जब कोई व्यक्ति उन्हें अपने अधीनस्थ पुत्र के रूप में स्वीकार करता है, जिसे पिता के संरक्षण की आवश्यकता होती है अपेक्षा इसके कि कोई उन्हें भगवान् रूप में स्वीकार करे। वे सबों के पिता हैं और सबों की रक्षा करते हैं, किन्तु जब उनका भक्त यह मान लेता है कि भगवान् को भक्त की देखरेख में रहकर सुरक्षा प्राप्त करनी है, तो इससे उन्हें दिव्य हर्ष होता है। अतएव जब कंस के भय से वसुदेव उन्हें वृन्दावन ले गये तो भगवान् को आनन्द प्राप्त हुआ अन्यथा उन्हें कंस से या अन्य किसी से कोई भय नहीं था।
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