श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  3.2.27 
परीतो वत्सपैर्वत्सांश्चारयन् व्यहरद्विभु: ।
यमुनोपवने कूजद्‌द्विजसंकुलिताङ्‌घ्रिपे ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
परीत:—घिरे; वत्सपै:—ग्वालबालों से; वत्सान्—बछड़ों को; चारयन्—चराते हुए; व्यहरत्—विहार का आनन्द लिया; विभु:—सर्वशक्तिमान; यमुना—यमुना नदी; उपवने—तट के बगीचे में; कूजत्—शब्दायमान; द्विज—पक्षी; सङ्कुलित—सघन; अङ्घ्रिपे—वृक्षों में ।.
 
अनुवाद
 
 अपने बाल्यकाल में सर्वशक्तिमान भगवान् ग्वालबालों तथा बछड़ों से घिरे रहते थे। इस तरह वे यमुना नदी के तट पर सघन वृक्षों से आच्छादित तथा चहचहाते पक्षियों की ध्वनि से पूरित बगीचों में विहार करते थे।
 
तात्पर्य
 नन्द महाराज कंस के भूमिधर थे, किन्तु जाति से वैश्य होने के कारण उन्होंने हजारों गौवें पाल रखी थीं। वैश्यों का कर्तव्य है कि गौवों को सुरक्षा प्रदान करें जिस तरह क्षत्रियों को मनुष्यों को सुरक्षा प्रदान करनी होती है। चूँकि भगवान् बालक थे, इसीलिए उन्हें अन्य ग्वालमित्रों के साथ बछड़ों को चराने का भार सौंप दिया गया था। ये ग्वालबाल अपने पूर्वजन्म में महर्षि तथा योगी थे और ऐसे अनेक पवित्र जन्मों के बाद उन्हें भगवान् की संगति प्राप्त हुई थी जिससे वे उनके साथ समान स्तर पर खेल सकते थे। ऐसे ग्वालबालों ने यह जानने की कभी परवाह नहीं की कि कृष्ण कौन हैं, किन्तु वे अत्यन्त घनिष्ठ तथा प्रिय मित्र के रूप में उनके साथ खेलते थे। वे भगवान् को इतना चाहते थे कि रात में भी वे यही सोचते कि कब भोर हो और वे भगवान् से मिलकर एकसाथ गौवें चराने जंगल जाँए।

यमुना के किनारे के सारे जंगल सुन्दर बगीचे थे, जो आम, कटहल, सेब, अमरूद, नारंगी, अंगूर, बेर, ताडफ़ल के पेड़ों तथा अन्य कई पौधों और सुगन्धित पुष्पों से भरे पड़े थे। चूँकि यह जंगल यमुना के तट पर था, अतएव स्वाभाविक है कि यहाँ बत्तख, सारस तथा वृक्षों की शाखाओं पर मोर होते। ये सारे वृक्ष तथा पक्षी एवं पशु पवित्र जीव थे, जो वृन्दावन के दिव्य धाम में भगवान् को एवं उनके नित्य संगी ग्वालबालों को आनन्द प्रदान करने के लिए थे।

भगवान् ने अपने संगियों के साथ छोटे शिशु की तरह खेलते हुए अघासुर, बकासुर, प्रलम्बासुर तथा गर्दभासुर असुरों का वध किया। यद्यपि वे वृन्दावन में एक बालक रूप में प्रकट हुए थे, किन्तु वास्तव में वे अग्नि की ढकी हुई लपटों के तुल्य थे। आग की एक चिनगारी ईंधन से मिलकर भीषण अग्नि उत्पन्न कर सकती है; उसी तरह भगवान् ने नन्द महाराज के घर में अपने बाल्यकाल से ही आरम्भ करके इन सभी महान् असुरों का वध किया। भगवान् के बाल्यकाल की क्रीड़ास्थली वृन्दावन की भूमि आज भी है और जो कोई भी इन स्थानों में जाता है, वह वही दिव्य आनन्द पाता है, यद्यपि भगवान् हमारी अपूर्ण आँखों को सदेह दृष्टिगोचर नहीं होते। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् की इस भूमि को भगवान् से अभिन्न बतलाया, अतएव भक्तों द्वारा यह पूजनीय है। इस उपदेश को चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी, जो गौड़ीय वैष्णव कहलाते है, विशेषरूप से मानते हैं। चूँकि यह भूमि भगवान् से अभिन्न है, अतएव उद्धव तथा विदुर जैसे भक्तों ने ५००० वर्ष पूर्व इन स्थानों का भ्रमण किया जिससे वे दृश्य या अदृश्य भगवान् से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित कर सकें। आज भी भगवान् के हजारों भक्त वृन्दावन के इन पवित्र स्थानों में भ्रमण करते हैं और इस तरह वे भगवद्धाम जाने की तैयारी करते हैं।

 
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