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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.2.31 
विपन्नान् विषपानेन निगृह्य भुजगाधिपम् ।
उत्थाप्यापाययद्गावस्तत्तोयं प्रकृतिस्थितम् ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
विपन्नान्—महान् विपदाओं में परेशान; विष-पानेन—विष पीने से; निगृह्य—दमन करके; भुजग-अधिपम्—सर्पों के मुखिया को; उत्थाप्य—बाहर निकाल कर; अपाययत्—पिलाया; गाव:—गौवें; तत्—उस; तोयम्—जल को; प्रकृति—स्वाभाविक; स्थितम्—स्थिति में ।.
 
अनुवाद
 
 वृन्दावन के निवासी घोर विपत्ति के कारण परेशान थे, क्योंकि यमुना के कुछ अंश का जल सर्पों के प्रमुख (कालिय) द्वारा विषाक्त किया जा चुका था। भगवान् ने सर्पराज को जल के भीतर प्रताडि़त किया और उसे दूर खदेड़ दिया। फिर नदी से बाहर आकर उन्होंने गौवों को जल पिलाया तथा यह सिद्ध किया कि वह जल पुन: अपनी स्वाभाविक स्थिति में है।
 
 
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