श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  3.2.34 
शरच्छशिकरैर्मृष्टं मानयन् रजनीमुखम् ।
गायन् कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डन: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
शरत्—शरद् कालीन; शशि—चन्द्रमा की; करै:—किरणों से; मृष्टम्—चमकीला; मानयन्—सोचते हुए; रजनी-मुखम्—रात का मुख; गायन्—गाते हुए; कल-पदम्—मनोहर गीत; रेमे—विहार किया; स्त्रीणाम्—स्त्रियों का; मण्डल-मण्डन:—स्त्रियों की सभा के मुख्य आकर्षण के रूप में ।.
 
अनुवाद
 
 वर्ष की तृतीय ऋतु में भगवान् ने स्त्रियों की सभा के मध्यवर्ती सौन्दर्य के रूप में चाँदनी से उजली हुई शरद् की रात में अपने मनोहर गीतों से उन्हें आकृष्ट करके उनके साथ विहार किया।
 
तात्पर्य
 गौवों की भूमि वृन्दावन छोडऩे के पूर्व भगवान् ने अपनी युवा-सखियों अर्थात् दिव्य गोपियों को अपनी रासलीला द्वारा आनन्दित किया। यहाँ पर उद्धव ने भगवान् के कार्यों का वर्णन करना रोक दिया।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “भगवान् कृष्ण का स्मरण” नामक दूसरे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥