स मुहूर्तमभूत्तूष्णीं कृष्णाङ्घ्रि सुधया भृशम् ।
तीव्रेण भक्तियोगेन निमग्न: साधु निर्वृत: ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
स:—उद्धव; मुहूर्तम्—क्षण भर के लिए; अभूत्—हो गया; तूष्णीम्—मौन; कृष्ण-अङ्घ्रि—भगवान् के चरणकमलों के; सुधया—अमृत से; भृशम्—सुपक्व; तीव्रेण—अत्यन्त प्रबल; भक्ति-योगेन—भक्ति द्वारा; निमग्न:—डूबे हुए; साधु—उत्तम; निर्वृत:—प्रेम पूर्ण ।.
अनुवाद
वे क्षणभर के लिए एकदम मौन हो गये और उनका शरीर हिला-डुला तक नहीं। वे भक्तिभाव में भगवान् के चरणकमलों के स्मरण रूपी अमृत में पूरी तरह निमग्न हो गये और उसी भाव में वे गहरे उतरते दिखने लगे।
तात्पर्य
विदुर द्वारा कृष्ण के विषय में पूछे जाने पर ऐसा प्रतीत हुआ मानो उद्धव नींद से जगे हों। वे यह खेद करते प्रतीत हुए कि उन्होंने भगवान् के चरणकमलों को भुला दिया है। इस पर उन्होंने पुन: भगवान् के चरणकमलों का स्मरण किया और उनके प्रति अपनी दिव्य प्रेमाभक्ति का स्मरण किया। ऐसा करने से उन्हें वैसा ही आनन्द मिला जैसाकि वे भगवान् की उपस्थिति में अनुभव करते थे। चूँकि भगवान् परम पूर्ण हैं, अतएव उनकी स्मृति तथा उनकी सदेह उपस्थिति में कोई अन्तर नहीं है। इस तरह उद्धव एक क्षण के लिए पूर्णत: मौन रहे, किन्तु वे उस आनन्द में अधिकाधिक गहरे जाते प्रतीत हुए। भावावेश का प्रदर्शन महाभागवतों द्वारा किया जाता है। शरीर में आठ प्रकार के दिव्य परिवर्तन होते हैं। ये हैं अश्रु, कम्पन, प्रस्वेदन, बेचैनी, रोमांच, गले का रुँधना इत्यादि और विदुर के समक्ष उद्धव में इन सबका प्राकट्य हुआ।
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