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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.2.5 
पुलकोद्‍‌भिन्नसर्वाङ्गो मुञ्चन्मीलद्‍दृशा शुच: ।
पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्‍नेहप्रसरसंप्लुत: ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
पुलक-उद्भिन्न—दिव्य भाव के शारीरिक परिवर्तन; सर्व-अङ्ग:—शरीर का हर भाग; मुञ्चन्—लेपते हुए; मीलत्—खोलते हुए; दृशा—आँखों द्वारा; शुच:—शोक के अश्रू; पूर्ण-अर्थ:—पूर्ण सिद्धि; लक्षित:—इस तरह देखा गया; तेन—विदुर द्वारा; स्नेह प्रसर—विस्तृत प्रेम; सम्प्लुत:—पूर्णरूपेण स्वात्मीकृत ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर ने देखा कि उद्धव में सम्पूर्ण भावों के कारण समस्त दिव्य शारीरिक परिवर्तन उत्पन्न हो आये हैं और वे अपनी आँखों से विछोह के आँसुओं को पोंछ डालने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह विदुर यह जान गये कि उद्धव ने भगवान् के प्रति गहन प्रेम को पूर्णरूपेण आत्मसात् कर लिया है।
 
तात्पर्य
 भगवान् के एक अनुभवी भक्त विदुर ने उद्धव में भक्तिमय जीवन के उच्चतम लक्षण देखे और उन्होंने उनके भगवत्प्रेम की सिद्धावस्था की पुष्टि की। ऐसे भावमय शारीरिक परिवर्तन आध्यात्मिक स्तर पर प्रगट होते हैं और ये अभ्यास द्वारा उत्पन्न की गई कृत्रिम अभिव्यक्तियाँ नहीं होते। भक्ति के विकास की तीन विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। प्रथम अवस्था है भक्ति संहिताओं में संस्तुत विधि-विधानों का पालन करना। दूसरी अवस्था है भक्ति की स्थायी दशा का आत्मसात् होना तथा उसकी अनुभूति होना और अन्तिम अवस्था है दिव्य शारीरिक अभिव्यक्ति के लक्षणों वाली भाव- अवस्था। भक्ति की नौ विभिन्न विधियाँ यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण इत्यादि इस विधि के शुभारम्भ हैं। भगवान् की महिमाओं तथा लीलाओं के नियमपूर्वक श्रवण से शिष्य के हृदय की अशुद्धियाँ धुलने लगती हैं। जिस शिष्य की अशुद्धियाँ जितनी अधिक धुल जाती है, वह भक्ति में उतना ही अधिक दृढ़ होता जाता है। क्रमश: ये भक्ति कार्य एक-एक करके स्थिरता, दृढ़ विश्वास, स्वाद, अनुभूति तथा आत्मसात् का रूप धारण कर लेते हैं। क्रमिक विकास की ये विभिन्न अवस्थाएँ ईश प्रेम को सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचा देती हैं और इस सर्वोच्च अवस्था में भी स्नेह, क्रोध तथा अनुराग जैसे अन्य लक्षण पाये जाते हैं। धीरे-धीरे विशेष दशाओं में ये महाभाव की दशा को प्राप्त कर लेते हैं, जो जीवों में सामान्यतया सम्भव नहीं हैं। ये सभी ईश्वर प्रेम के साक्षात् रूप श्री चैतन्य महाप्रभु में प्रकट होते थे।

श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख्य शिष्य श्री रूप गोस्वामी कृत भक्ति-रसामृत-सिन्धु में इन दिव्य लक्षणों का क्रमबद्ध वर्णन हुआ है, जो उद्धव जैसे शुद्ध भक्तों द्वारा प्रदर्शित किये जाते हैं। हमने भी भक्ति-रसामृत-सिन्धु का सार रूप में दि नेक्टर आफ डिवोशन शीर्षक से एक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक को भक्ति विज्ञान पर अधिक जानकारी हेतु देखा जा सकता है।

 
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