श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 2: भगवान् कृष्ण का स्मरण  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.2.6 
शनकैर्भगवल्लोकान्नृलोकं पुनरागत: ।
विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रीत्याहोद्धव उत्स्मयन् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
शनकै:—धीरे-धीरे; भगवत्—भगवान्; लोकात्—धाम से; नृलोकम्—मनुष्य लोक को; पुन: आगत:—फिर से आकर; विमृज्य—पोंछकर; नेत्रे—आँखें; विदुरम्—विदुर से; प्रीत्या—स्नेहपूर्वक; आह—कहा; उद्धव:—उद्धव ने; उत्स्मयन्—उन स्मृतियों के द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 महाभागवत उद्धव तुरन्त ही भगवान् के धाम से मानव-स्तर पर उतर आये और अपनी आँखें पोंछते हुए उन्होंने अपनी पुरानी स्मृतियों को जगाया तथा वे विदुर से प्रसन्नचित्त होकर बोले।
 
तात्पर्य
 जब उद्धव ईशप्रेम के दिव्य भाव में मग्न थे तो वे बाह्य जगत के विषय में सब कुछ भूल गये थे। शुद्ध भक्त निरन्तर भगवद्धाम में रहता है यहाँ तक कि वर्तमान शरीर में भी जो कि इस जगत से सम्बन्धित है। शुद्ध भक्त पूरी तरह शारीरिक स्तर पर नहीं रहता, क्योंकि वह परमात्मा के दिव्य विचार में निमग्न रहता है। चूँकि अब उद्धव विदुर से बात करना चाह रहे थे, अत: उद्धव भगवद्धाम द्वारका से नीचे उतर कर मनुष्यों के भौतिक स्तर पर आ गये। यद्यपि शुद्ध भक्त इस मर्त्य जगत में उपस्थित रहता है, किन्तु भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे होने के कारण ही वह यहाँ पर रहता है, किसी अन्य भौतिक कारण से नहीं। जीव अपने अस्तित्व की स्थिति के अनुसार या तो भौतिक स्तर पर रह सकता है या भगवान् के दिव्य धाम में। जीव में होनेवाले पारिस्थितिक परिवर्तनों की व्याख्या भगवान् श्री चैतन्य द्वारा श्रील रूप गोस्वामी को दिए गये उपदेशों में चैतन्य चरितामृत में की गई है, “समस्त ब्रह्माण्डों में सारे जीव अपने कर्म का फल जन्म-जन्मांतर भोगते हैं। इनमें से कुछ जीव शुद्ध भक्तों की संगति में आकर रस प्राप्ति के द्वारा भक्ति करने का अवसर प्राप्त कर पाते हैं। यही आस्वाद भक्ति का बीज है और जो इस बीज को प्राप्त करने का परम भाग्यशाली होता है उसे सलाह दी जाती है कि वह अपने हृदय के अन्तस्थल में इस बीज को बो दे। जिस तरह बीज बोने के बाद उसमें फल लगने के लिए पानी देकर सींचना पड़ता है उसी तरह भक्त के हृदय में बोया हुआ भक्ति का बीज भगवान् के नाम तथा लीलाओं के श्रवण तथा कीर्तन रूपी जल से सींच कर बड़ा किया जा सकता है। इस तरह से पोषित भक्ति की लता क्रमश: बढ़ती जाती है और भक्त माली के रूप में निरन्तर श्रवण तथा कीर्तन रूपी जल से उसे सींचता रहता है। यह भक्तिलता धीरे-धीरे इतनी ऊँची बढ़ जाती है कि सारे भौतिक ब्रह्माण्ड को पार करते हुए वह वैकुण्ठलोक में पहुँचती है जहाँ से आगे बढ़ते हुए वह गोलोक वृन्दावन पहुँच जाती है। भक्त रूपी माली मात्र श्रवण तथा कीर्तन द्वारा भगवान् की भक्ति करने से भौतिक स्तर पर होते हुए भी भगवद्धाम के सम्पर्क में रहता है। जिस तरह लता किसी अन्य बलवान् वृक्ष की शरण लेती है उसी तरह भक्ति रूपी लता भक्त द्वारा पोषित होकर भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करती है और इस तरह स्थिर हो जाती है। जब लता स्थिर हो जाती है, तो उसमें फल लग जाता है और तब जिस माली ने इसका पोषण किया था वह प्रेम रूपी फल का आस्वाद कर सकता है और उसका जीवन सफल हो जाता है।” उद्धव को यह अवस्था प्राप्त हो गई थी, यह उनके व्यवहार से स्पष्ट है। वे परम धाम पहुँच सकते थे और उसी के साथ-साथ इस जगत में भी प्रकट हो सकते थे।
 
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