श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  3.20.1 
शौनक उवाच
महीं प्रतिष्ठामध्यस्य सौते स्वायम्भुवो मनु: ।
कान्यन्वतिष्ठद् द्वाराणि मार्गायावरजन्मनाम् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
शौनक:—शौनक; उवाच—कहा; महीम्—पृथ्वी को; प्रतिष्ठाम्—स्थित; अध्यस्य—प्राप्त करके; सौते—हे सूत गोस्वामी; स्वायम्भुव:—स्वायंभुव; मनु:—मनु ने; कानि—क्या; अन्वतिष्ठत्—किया; द्वाराणि—मार्ग; मार्गाय— निकलने के लिए; अवर—बाद में; जन्मनाम्—जन्म लेनेवालों का ।.
 
अनुवाद
 
 श्री शौनक ने पूछा—हे सूत गोस्वामी, जब पृथ्वी अपनी कक्ष्या में पुन: स्थापित हो गई तो स्वायंभुव मनु ने बाद में जन्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को मुक्ति-मार्ग प्रदर्शित करने के लिए क्या-क्या किया?
 
तात्पर्य
 भगवान् का आदि शूकर अवतार स्वायंभुव मनु के काल में हुआ जबकि वर्तमान युग वैवस्वत मनु का काल है। प्रत्येक मनु का काल चारों युगों के चक्र से ७२ गुने काल तक रहता है और प्रत्येक चक्र ४३,२०,००० सौर वर्षों के तुल्य होता है। अत: एक मनु का राज्य ४३,२०,००० × ७२ सौर वर्षों तक रहता है। प्रत्येक मनु के काल में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं और ब्रह्मा के एक दिन में ऐसे चौदह मनु होते हैं। यहाँ यह बताया गया है कि उन बद्धजीवों के मोक्ष के लिए मनु धार्मिक नियम बनाता है, जो इस संसार में भौतिक भोग के लिए आये हैं। भगवान् इतने दयालु हैं कि जो भी इस संसार में आकर भौतिक सुख भोगना चाहता है भोग की सारी सुविधाएँ उसे दी जाती हैं, किन्तु उसी के साथ उसके लिए मोक्ष का मार्ग भी खुला रहता है। इसीलिए शौनक ऋषि ने सूत गोस्वामी से पूछा, “पृथ्वी के अपनी कक्ष्या में पुन: स्थापित हो जाने पर स्वांयभुव मनु ने फिर क्या किया?”
 
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