श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  3.20.16 
तस्य नाभेरभूत्पद्मं सहस्रार्कोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयमभूत्स्वराट् ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
तस्य—भगवान् की; नाभे:—नाभि से; अभूत्—बाहर निकला; पद्मम्—कमल; सहस्र-अर्क—एक हजार सूर्यों से; उरु—अधिक; दीधिति—देदीप्यमान; सर्व—समस्त; जीव-निकाय—बद्धजीवों का आश्रय; ओक:—स्थान; यत्र— जहाँ; स्वयम्—अपने आप; अभूत्—आविर्भाव हुआ; स्व-राट्—सर्वशक्तिमान ब्रह्माजी ।.
 
अनुवाद
 
 गर्भोदकशायी भगवान् विष्णु की नाभि से हजार सूर्यों की दीप्ति सदृश प्रकाशमान एक कमल पुष्प प्रकट हुआ। यह कमल पुष्प समस्त बद्धजीवों का आश्रय है और इस पुष्प से प्रकट होने वाले पहले जीवात्मा सर्वशक्तिमान ब्रह्मा थे।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक से ऐसा प्रतीत होता है कि पिछली सृष्टि के प्रलय के पश्चात् भगवान् के शरीर के भीतर स्थित बद्ध जीवात्माएँ कमल के रूप में इकट्टी हो कर बाहर निकल आई। इसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। इससे जो प्रथम जीवात्मा प्रकट हुआ वह ब्रह्मा जी थे, जो शेष दृश्य जगत की स्वतन्त्र रूप से सृष्टि करने में समर्थ हैं। इस कमल को एक हजार सूर्यों के प्रकाश के समान देदीप्यमान कहा गया है। इससे सूचित होता है कि परमेश्वर की अंशस्वरूप जीवात्माएँ भी उसी प्रकार की होंगी, क्योंकि भगवान् भी अपनी शारीरिक कान्ति को, जिसे ब्रह्मज्योति कहते हैं, चारों ओर फैलाते हैं। भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में वैकुण्ठलोक का जो वर्णन है उसकी इससे पुष्टि होती है। वैकुण्ठलोक में न तो धूप, न चाँदनी, न अग्नि और न बिजली की आवश्यकता होती है। वहाँ प्रत्येक लोक सूर्य के समान स्वत: प्रकाशमान है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥