इस भौतिक संसार में इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से जो बद्धजीव या जीवात्माएँ आती हैं, वे प्रारम्भ में पाँच विभिन्न दशाओं से आच्छादित रहती हैं। पहली दशा है तामिस्र कोश अर्थात् क्रोध। स्वाभाविक रूप से प्रत्येक जीवात्मा को थोड़ी स्वतन्त्रता प्राप्त है, किन्तु यदि जीवात्मा यह सोचे कि वह परमेश्वर के समान स्वतंत्र भोग क्यों नहीं करता या यह कि उन्हीं के समान मुक्त भोक्ता क्यों नहीं हो जाता तो यह उस किञ्चित स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कहा जाएगा। उसका अपनी इस स्वाभाविक स्थिति को भूलने का कारण क्रोध या द्वेष है। जीवात्मा भगवान् का शाश्वत अंश होने के कारण कभी भी भगवान् के समान भोक्ता नहीं बन सकता। किन्तु जब यह इसे भूल जाता है और भगवान् से समता करने लगता है, तो उसकी इस अवस्था (दृश्य) को तामिस्र कहते हैं। आत्मसाक्षात्कार के क्षेत्र में भी जीवात्मा की तामिस्र प्रवृत्ति बनी रहती है। इस भौतिक जीवन के बन्धन से छुटकारा पाने का प्रयत्न करते हुए अनेक लोग परब्रह्म से तादात्म्य चाहते हैं। उनके दिव्य कर्मों में भी यह तामिस्र की निम्न प्रवृत्ति बनी रहती है। अन्ध-तामिस्र में मृत्यु को परम अन्त माना जाता है। नास्तिक सामान्य रूप से सोचते हैं कि यह शरीर ही आत्मा है और इस शरीर के अन्त होते ही सब कुछ अन्त हो जाता है, फलत: जब तक यह शरीर है तब तक वे भौतिक जीवन का आनन्द उठाना चाहते हैं। उनका यह सिद्धान्त इस प्रकार है—“जब तक जीवित रहो तब तक ठाठ-बाट से रहो। सभी प्रकार के पापों को करते हुए उन पर ध्यान न दो। अच्छा-अच्छा खाओ। माँगकर, उधार लेकर तथा चुरा कर पेट भरो और यह न सोचो कि चुराने तथा माँगने से तुम पाप-कर्मों के भागी होगे। इस भ्रान्त धारणा को भूल जाओ, क्योंकि मृत्यु के बाद सब कुछ समाप्त हो जाएगा। अपने जीवन में जो कुछ किया जाता है उसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं है।” इस नास्तिकतावादी विचारधारा से मानव सभ्यता विनष्ट हो रही है, यह नित्य जीवन के सातत्य का ज्ञान न होने के कारण है।
यह अंध-तामिस्र अज्ञान तमस् के कारण है। आत्मा के सम्बन्ध में कुछ भी न जानना तमस् है। यह भौतिक जगत भी प्राय: तमस् कहलाता है क्योंकि इसके ९९ प्रतिशत से अधिक जीव आत्मा के स्वरूप से अपरिचित रहते हैं। प्राय: प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि वह शरीर है, उसे आत्मा से सम्बन्ध में किसी प्रकार की जानकारी नहीं होती। इस भ्रान्त धारणावश वह सदैव सोचता रहता है, “यह मेरा शरीर है और इस शरीर से सम्बन्धित सभी वस्तुएँ मेरी हैं।” ऐसी दिग्भ्रमित जीवात्माओं के लिए संभोग-सुख ही इस भौतिक जगत का मूलाधार है। वस्तुत: इस भौतिक जगत में अज्ञानवश बद्धजीव संभोग जीवन से निर्देशित होते हैं और ज्योंही उन्हें विषयवासना का अवसर प्राप्त होता हैं, वे तथाकथित घर, मातृभूमि, सन्तान, सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य के प्रति आसक्त हो उठते हैं। ज्यों-ज्यों यह आसक्ति बढ़ती जाती है त्यों-त्यों मोह भी बढ़ता जाता है। इस प्रकार, “मैं तथा मेरा” विचार की वृद्धि होती जाती है और जब यह बढ़ जाता है, तो सारा संसार मोहग्रस्त हो जाता है, जिससे साम्प्रदायिकता, समाज, परिवार तथा राष्ट्रों का जन्म होता है और वे एक दूसरे से झगड़ते रहते हैं। महा-मोह का अर्थ है भौतिक सुख के पीछे पागल रहना। विशेषरूप से इस कलियुग में प्रत्येक मनुष्य भौतिक सुख की साज-सामग्री संग्रह करने के पीछे दीवाना रहता है। ये परिभाषाएँ विष्णुपुराण में सुन्दर ढंग से दी गई हैं। यथा तमोऽविवेको मोह: स्याद् अन्त:करणविभ्रम:।
महामोहस्तु विज्ञेयो ग्राम्यभोग-सुखैषणा ॥
मरणं ह्यन्धतामिस्रं तामिस्रं क्रोध उच्यते।
अविद्या पञ्चपर्वैषा प्रादुर्भूता महात्मन: ॥