श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.20.25 
स उपव्रज्य वरदं प्रपन्नार्तिहरं हरिम् ।
अनुग्रहाय भक्तानामनुरूपात्मदर्शनम् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—ब्रह्माजी; उपव्रज्य—पास पहुँच कर; वर-दम्—समस्त वरों के दाता; प्रपन्न—चरणकमल की शरण लेने वाले; आर्ति—कष्ट; हरम्—दूर करने वाला; हरिम्—भगवान् श्री हरि के; अनुग्रहाय—कृपावश; भक्तानाम्—अपने भक्तों के प्रति; अनुरूप—उपयुक्त रूप में; आत्म-दर्शनम्—अपने आप को प्रकट करने वाला ।.
 
अनुवाद
 
 वे भगवान् श्री हरि के पास पहुँचे जो समस्त वरों को देने वाले तथा अपने भक्तों एवं अपने चरणों की शरण ग्रहण करने वालों की पीड़ा को हरने वाले हैं। वे अपने भक्तों की तुष्टि के लिए असंख्य दिव्य रूपों में प्रकट होते हैं।
 
तात्पर्य
 भक्तानाम् अनुरूपात्मदर्शनम् शब्दों का अर्थ है कि भक्तों की इच्छानुरूप भगवान् अपने विविध रूपों को प्रकट करते हैं। उदाहरणार्थ, हनुमानजी (बज्राङ्ग जी) भगवान् को भगवान् श्रीरामचन्द्र के रूप में देखना चाहते थे जब कि कुछ अन्य वैष्णव राधाकृष्ण रूपमें देखना चाहते हैं और कुछ ऐसे हैं, जो भगवान् को लक्ष्मीनारायण रूप में देखना चाहते हैं। मायावादी दार्शनिकों का विचार है कि यद्यपि भगवान् द्वारा ये सभी रूप भक्तों की इच्छानुसार धारण किये जाते हैं, किन्तु वास्तव में वे निराकार हैं। तो भी ब्रह्म-संहिता से हमें ज्ञात होता है कि ऐसा है नहीं, भगवान् के विविध रूप होते हैं। उसमें कहा गया है अद्वैतम् अच्युतम्। भगवान् भक्त की कल्पना के कारण भक्त के समक्ष प्रकट नहीं होते। ब्रह्म-संहिता यह भी बताती है कि भगवान् के अनेक रूप हैं—रामादि-मूर्तिषु, कलानियमेन तिष्ठन्। वे करोड़-करोड़ रूपों में विद्यमान हैं। जीवात्माओं की चौरासी लाख योनियाँ हैं, किन्तु परमेश्वर के अवतार अनन्त हैं। भागवत में कहा गया है कि जिस प्रकार समुद्र की तरंगें नहीं गिनी जा सकतीं, क्योंकि वे लगातार प्रकट और लुप्त होती रहती हैं, उसी प्रकार भगवान् के अवतार तथा रूप भी अनन्त हैं। भक्त किसी रूप विशेष के प्रति अनुरक्त होता है और वह इसी रूप को पूजता है। हम इस ब्रह्माण्ड में उनके आदि वराह रूप की चर्चा अभी अभी कर चुके हैं। ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड हैं और इनमें से किसी एक में वराह रूप सम्प्रति विद्यमान होगा। भगवान् के समस्त रूप नित्य हैं। यह तो भक्त की रुचि पर निर्भर करता है कि वह भगवान् के किस रूप की पूजा करता है। रामायण के एक श्लोक में राम के परम भक्त हनुमान कहते हैं, “मैं जानता हूँ कि श्रीभगवान् के सीताराम तथा लक्ष्मीनारायण रूपों में कोई अन्तर नहीं है, तो भी मेरा अनुराग और प्रेम राम तथा सीता के रूप में घुल-मिल गया है। अत: मैं भगवान् के राम तथा सीता के ही रूप का दर्शन करना चाहता हूँ।” इसी प्रकार गौड़ीय वैष्णव राधा तथा कृष्ण और द्वारकावासी कृष्ण तथा रुक्मिणी रूपों से प्रेम करते हैं। भक्तानाम् अनुरूपात्मदर्शनम् शब्दों का अर्थ है कि भगवान् उसे उस विशेष रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप में भक्त उनकी पूजा और सेवा करना चाहते हैं। इस श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्माजी भगवान् हरि के पास पहुँचे। भगवान् का यह क्षीरोदकशायी विष्णु रूप है। जब कभी कोई संकट आता है और ब्रह्माजी को भगवान् के पास जाना पड़ता है, तो ब्रह्माजी, क्षीरोदकशायी विष्णु के पास ही पहुँच सकते हैं और यह भगवान् का अनुग्रह है कि जब भी ब्रह्माण्ड के उत्पातों के बारे में ब्रह्मा उनके पास जाते हैं, वे अनेकानेक प्रकार से उनका संकट दूर करते हैं।
 
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