सबों के मनों को स्पष्ट रूप से देख सकने वाले भगवान् ने ब्रह्मा की वेदना समझ ली और वे उनसे बोले, “तुम अपना यह अशुद्ध शरीर त्याग दो।” भगवान् से आदेश पाकर ब्रह्मा ने अपना शरीर त्याग दिया।
तात्पर्य
भगवान् को इस श्लोक में विविक्ताध्यात्मदर्शन: कहा गया है। यदि कोई पराये दुख को पूर्णरूपेण बिना सन्देह के देख सकता है, तो वह स्वयं भगवान् ही है। यदि कोई मनुष्य कष्ट में होता है और अपने मित्र से उसका निवारण चाहता है, तो ऐसा कभी कभी होता है कि मित्र उसके दुख की सघनता को नहीं समझ पाता, किन्तु भगवान् के लिए ऐसा कर पाना कठिन नहीं है। परमात्मा रूप में वह प्रत्येक जीवात्मा के शरीर में स्थित है और वह दुख के वास्तविक कारणों को प्रत्यक्ष देखता रहता है। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:—मैं सबों के हृदय में स्थित हूँ और मुझी से स्मृति तथा विस्मृति उत्पन्न होती है। इस प्रकार जब कोई पूर्णतया भगवान् की शरण में चला जाता है, तो वह भगवान् को अपने हृदय में संस्थित पाता है। वे हमें संकट से उबरने अथवा अपनी भक्ति करने के उपाय के लिए आदेश दे सकते हैं। फिर भी भगवान् ने ब्रह्मा से अपना वर्तमान शरीर त्यागने के लिए कहा, क्योंकि उससे आसुरी तत्त्व उत्पन्न हुआ था। श्रीधर स्वामी के अनुसार ब्रह्मा के द्वारा निरन्तर शरीर त्याग यह सूचित नहीं करता कि वास्तव में वे अपना शरीर त्यागते हैं, वरन् वे यह सुझाव देते हैं कि ब्रह्मा ने एक विशेष प्रकार की मानसिकता का परित्याग किया। मन जीवात्मा का सूक्ष्म शरीर है। हम कभी ऐसे विचार में मग्न हो सकते हैं, जो पापमय हो, किन्तु यदि हम इस पापमय विचार को त्याग दें तो यह कहा जा सकता है कि हम शरीर त्याग कर रहे हैं। जब ब्रह्मा ने असुरों को उत्पन्न किया, तो उनका मन ठिकाने पर नहीं था। हो सकता है कि वह काममय रहा हो, क्योंकि सारी सृष्टि कामुक थी। इसीलिए ऐसी कामुक सन्तानें उत्पन्न हुईं। इसका यह अर्थ हुआ कि माता-पिता को सन्तान उत्पन्न करते समय सतर्क रहना चाहिए। सन्तान की मानसिक अवस्था गर्भाधान के समय माता-पिता की मानसिक स्थिति पर निर्भर करती है। इसीलिए वैदिक पद्धति में सन्तानोत्पत्ति के लिए गर्भाधान संस्कार सम्पन्न किया जाता है। सन्तान उत्पन्न करने के पूर्व आतुर मन को शान्त करना आवश्यक है। जब माता-पिता भगवान् के पादपद्मों में अपने मन को रमाते हैं, तो ऐसी स्थिति में जो सन्तान उत्पन्न होती है, वह स्वभावत: भक्त बनती है और जब समाज ऐसे उत्तम लोगों से पूर्ण रहता है, तो आसुरी प्रवृत्तियों के कारण कोई कष्ट नहीं पहुँचता।
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