द्वैपायनात्—व्यासदेव से; अनवर:—किसी प्रकार से हेय नहीं; महित्वे—महानता में; तस्य—उसका (व्यास का); देह-ज:—उसके शरीर से उत्पन्न; सर्व-आत्मना—अपने सम्पूर्ण मन से; श्रित:—शरण ली; कृष्णम्—भगवान् श्रीकृष्ण की; तत्-परान्—उनमें अनुरक्त; च—तथा; अपि—भी; अनुव्रत:—पालन किया ।.
अनुवाद
विदुर वेदव्यास के आत्मज थे और उनसे किसी प्रकार से कम न थे। इस तरह उन्होंने पूर्ण मनोभाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों को स्वीकार किया और वे उनके भक्तों के प्रति अनुरक्त थे।
तात्पर्य
विदुर का इतिहास ऐसा है कि वे एक शूद्र माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, किन्तु उनके रैतस पिता वेदव्यास थे; अत: वे किसी भी प्रकार से वेदव्यास से कम नहीं थे। चूँकि वे महान् पिता के पुत्र थे, जिन्हें नारायण का अवतार माना जाता था और जिन्होंने समस्त वैदिक साहित्य का सृजन किया था, अत: विदुर भी महान् व्यक्ति थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को अपना आराध्य भगवान् स्वीकार किया और उनके उपदेशों का पूर्ण मनोभाव से पालन किया।
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