श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.20.3 
द्वैपायनादनवरो महित्वे तस्य देहज: ।
सर्वात्मना श्रित: कृष्णं तत्परांश्चाप्यनुव्रत: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
द्वैपायनात्—व्यासदेव से; अनवर:—किसी प्रकार से हेय नहीं; महित्वे—महानता में; तस्य—उसका (व्यास का); देह-ज:—उसके शरीर से उत्पन्न; सर्व-आत्मना—अपने सम्पूर्ण मन से; श्रित:—शरण ली; कृष्णम्—भगवान् श्रीकृष्ण की; तत्-परान्—उनमें अनुरक्त; च—तथा; अपि—भी; अनुव्रत:—पालन किया ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर वेदव्यास के आत्मज थे और उनसे किसी प्रकार से कम न थे। इस तरह उन्होंने पूर्ण मनोभाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों को स्वीकार किया और वे उनके भक्तों के प्रति अनुरक्त थे।
 
तात्पर्य
 विदुर का इतिहास ऐसा है कि वे एक शूद्र माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, किन्तु उनके रैतस पिता वेदव्यास थे; अत: वे किसी भी प्रकार से वेदव्यास से कम नहीं थे। चूँकि वे महान् पिता के पुत्र थे, जिन्हें नारायण का अवतार माना जाता था और जिन्होंने समस्त वैदिक साहित्य का सृजन किया था, अत: विदुर भी महान् व्यक्ति थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को अपना आराध्य भगवान् स्वीकार किया और उनके उपदेशों का पूर्ण मनोभाव से पालन किया।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥