श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  3.20.34 
कासि कस्यासि रम्भोरु को वार्थस्तेऽत्र भामिनि ।
रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो विबाधसे ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
का—कौन; असि—हो; कस्य—किसकी; असि—हो; रम्भोरु—हे सुन्दरी; क:—क्या; वा—अथवा; अर्थ:— प्रयोजन; ते—तुम्हारा; अत्र—यहाँ; भामिनि—हे कामिनी; रूप—सौन्दर्य; द्रविण—अमूल्य; पण्येन—सामग्री से; दुर्भगान्—अभागे; न:—हमें; विबाधसे—तरसा रही हो ।.
 
अनुवाद
 
 हे सुन्दरी बाला, तुम कौन हो? तुम किसकी पत्नी या पुत्री हो और तुम हम सबों के समक्ष किस प्रयोजन से प्रकट हुई हो? हम अभागों को तुम अपने सौन्दर्य रूपी अमूल्य सामग्री से क्यों तरसा रही हो?
 
तात्पर्य
 यहाँ पर भौतिक जगत के मिथ्या सौन्दर्य के प्रति असुरों का आकर्षण दिखाया गया है। असुर लोग इस संसार में त्वचा-सौन्दर्य के लिए कोई भी मूल्य चुका सकते हैं। वे अहर्निश कठोर श्रम करते हैं, किन्तु इस कठिन श्रम का प्रयोजन विषयी जीवन का आनन्द उठाना है। कभी-कभी वे योग का अर्थ न जानते हुए अपने आपको कर्मयोगी बतलाते हैं। योग का अर्थ है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साथ अपने को जोडऩा अथवा कृष्णभावनामृत के लिए कर्म करना। ऐसा मनुष्य, जो कठोर श्रम करता है, वह चाहे जिस उद्यम में हो तथा ऐसा मनुष्य जो अपने कर्म के फल को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में अर्पित कर देता है, कर्मयोगी कहलाता है।
 
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