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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  3.20.36 
नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्मं
घ्नन्त्या मुहु: करतलेन पतत्पतङ्गम् ।
मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतं
शान्तेव द‍ृष्टिरमला सुशिखासमूह: ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; एकत्र—एक स्थान पर; ते—तुम्हारा; जयति—ठहरता है; शालिनि—हे सुन्दर स्त्री; पाद-पद्मम्— चरणकमल; घ्नन्त्या:—मार कर; मुहु:—पुन: पुन:; कर-तलेन—हथेली से; पतत्—उछालती; पतङ्गम्—गेंद को; मध्यम्—कटि; विषीदति—थक जाती है; बृहत्—पूर्ण विकसित; स्तन—तुम्हारे स्तनों के; भार—बोझ से; भीतम्—दुखित; शान्ता इव—मानो थकित; दृष्टि:—दृष्टि; अमला—स्वच्छ; सु—सुन्दर; शिखा—तुम्हारी चोटी; समूह:— गुच्छा ।.
 
अनुवाद
 
 हे सुन्दरी, जब तुम धरती से उछलती गेंद को अपने हाथों से बार-बार मारती हो तो तुम्हारे चरण-कमल एक स्थान पर नहीं रुके रहते। तुम्हारे पूर्ण विकसित स्तनों के भार से पीडि़त तुम्हारी कमर थक जाती है और स्वच्छ दृष्टि मन्द पड़ जाती है। कृपया अपने सुन्दर बालों को ठीक से गूँथ तो लो।
 
तात्पर्य
 असुरों को उस सुन्दरी के प्रत्येक पग पर सुन्दर हाव-भाव दिख रहे थे। यहाँ पर वे गेंद खेलते समय उसके पूरी तरह उभरे उरोजों, बिखरे बालों तथा आगे-पीछे झुकने की गतियों की प्रशंसा करते हैं। वे पद-पद पर उसके स्त्रियोचित सौन्दर्य का आनंद लेते हैं और इस प्रकार आनन्द लेते हुए उनके मन कामवासना से उद्विग्न हो उठते हैं। जिस प्रकार रात्रि में अग्नि के चारों ओर पतंगे एकत्र होते और फिर मर जाते हैं उसी प्रकार से असुर सुन्दरी के कन्दुक सदृश स्तनों की हलचल के शिकार हो जाते हैं। सुन्दरी की बिखरी केश-राशि भी कामी असुरों के मन को आहत करती है।
 
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