श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.20.4 
किमन्वपृच्छन्मैत्रेयं विरजास्तीर्थसेवया ।
उपगम्य कुशावर्त आसीनं तत्त्ववित्तमम् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
किम्—क्या; अन्वपृच्छत्—पूछा; मैत्रेयम्—मैत्रेय ऋषि से; विरजा:—विदुर जो भौतिक कल्मष से रहित थे; तीर्थ सेवया—तीर्थस्थलों में जाकर; उपगम्य—मिल कर; कुशावर्ते—कुशावर्त (हरद्वार) में; आसीनम्—स्थित; तत्त्व वित्-तमम्—आत्म-विज्ञान के आदि ज्ञाता ।.
 
अनुवाद
 
 तीर्थस्थलों की यात्रा करने से विदुर सारी विषय वासना से शुद्ध हो गये। अन्त में वे हरद्वार पहुँचे जहाँ आत्मज्ञान के ज्ञाता एक महर्षि से उनकी भेंट हुई जिससे उन्होंने कुछ प्रश्न किये। अत: शौनक ऋषि ने पूछा कि मैत्रेय से विदुर ने और क्या-क्या पूछा?
 
तात्पर्य
 यहाँ पर विरजास्तीर्थ सेवया शब्द विदुर के लिए प्रयुक्त हैं, जो तीर्थस्थानों की यात्रा करने के कारण समस्त कल्मषों से पूरी तरह पवित्र हो चुके थे। भारत में सैकड़ों पवित्र तीर्थस्थल हैं जिनमें से प्रयाग, हरद्वार, वृन्दावन तथा रामेश्वरम प्रमुख हैं। राजनीति तथा कूटनीति से भरे हुए अपने घर को त्याग कर विदुर समस्त तीर्थों की यात्रा करके पवित्र होना चाहते थे, क्योंकि ये तीर्थ इस प्रकार स्थित हैं कि यदि कोई वहाँ जाय तो स्वत: पवित्र हो जाता है। वृन्दावन के लिए तो यह विशेष रूप से सत्य है। वहाँ कोई भी व्यक्ति जा सकता है और यदि वह पापी भी है, तो वहाँ तुरन्त उसे आध्यात्मिक जीवन का वातावरण अनुभव होने लगता है और वह स्वत: कृष्ण तथा राधा के नामों का जप करने लगता है। इसको हमने प्रत्यक्ष देखा है और अनुभव है। शास्त्रों में यह संस्तुति की गई है कि सक्रिय जीवन से विरक्त होकर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करके मनुष्य को तीर्थों की यात्रा करनी चाहिए जिससे वह अपने आपको शुद्ध कर सके। विदुर ने अपने इस कर्तव्य को भलीभाँति निबाहा और अन्त में वे कुशावर्त अर्थात् हरद्वार पहुँचे जहाँ मैत्रेय मुनि रह रहे थे।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को तीर्थों की यात्रा केवल स्नान करने के लिए नहीं करनी चाहिए, वरन् वहाँ पहुँचकर मैत्रेय जैसे परम ऋषियों की खोज करनी चाहिए और उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता तो तीर्थस्थलों मे जाना समय का अपव्यय मात्र होगा। वैष्णव सम्प्रदाय के महान् आचार्य नरोत्तम दास ठाकुर ने फिलहाल इस युग में ऐसे तीर्थस्थानों की यात्रा की मनाही की है, क्योंकि समय इतना बदल चुका है कि इन स्थानों के वर्तमान निवासियों का आचरण देखकर निष्ठावान व्यक्ति कुछ दूसरी ही धारणा बना सकता है। उन्होंने संस्तुति की है कि ऐसे स्थानों में न जाकर मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन को गोविन्द में केन्द्रित करे। इससे उसे लाभ होगा। दर असल, किसी स्थान में रहकर अपने मन को गोविन्द में रमाना आध्यात्मिकता में अत्यन्त प्रगति कर चुके पुरुषों का काम है यह सामान्य पुरुषों के वश की बात नहीं। सामान्य पुरुष तो अब भी प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन तथा हरद्वार जैसे पवित्र स्थानों की यात्रा से लाभ उठा सकते हैं।

इस श्लोक में कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि वह तत्त्ववित् अर्थात् ईश्वर के विज्ञान को जानने वाले की खोज करे। तत्त्ववित् का अर्थ है, “परम सत्य को जानने वाला।” तीर्थस्थानों में भी अनेक छद्म ब्रह्मविद् पाये जाते हैं। अत: मनुष्य को उपदेश ग्रहण करने के लिए वास्तविक व्यक्ति की तलाश करने के लिए समझ होनी चाहिए; तभी विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रा से लाभान्वित होने का उसका प्रयास सफल होगा। मनुष्य को समस्त कल्मषों से मुक्त होने के साथ ही साथ कृष्ण-विज्ञान को जानने वाले व्यक्ति की खोज करनी होगी। कृष्ण निष्ठावान व्यक्ति की सहायता करते हैं जैसाकि श्रीचैतन्य-चरितामृत में कहा गया है—गुरु- कृष्ण-प्रसादे—गुरु तथा कृष्ण की कृपा से मोक्ष का मार्ग प्राप्त होता है। यदि कोई निष्ठा से आध्यात्मिक मोक्ष चाहता है, तो प्रत्येक हृदय में स्थित श्रीकृष्ण उसे बुद्धि प्रदान करते हैं कि वह उपयुक्त गुरु खोज निकाले। मैत्रेय जैसे गुरु की कृपा से मनुष्य को उचित शिक्षा प्राप्त होती है और वह आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ता है।

 
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