ते—वे; आत्म-सर्गम्—उनके अस्तित्व का स्रोत; तम्—उस; कायम्—शरीर को; पितर:—पितृगण ने; प्रतिपेदिरे— स्वीकार कर लिया; साध्येभ्य:—साध्यों के लिए; च—तथा; पितृभ्य:—पितरों को; च—भी; कवय:—कर्मकाण्ड में पटु; यत्—जिससे; वितन्वते—पिण्डदान करते हैं ।.
अनुवाद
पितृगण ने अपने अस्तित्व के स्रोत उस अदृश्य शरीर को स्वयं धारण कर लिया। इस अदृश्य शरीर के माध्यम से ही श्राद्ध के अवसर पर कर्मकाण्ड में पटु लोग साध्यों तथा पितरों (दिवंगत पूर्वजों के रूप में) को पिण्डदान करते हैं।
तात्पर्य
श्राद्ध एक कर्मकाण्ड है, जिसे वेदों के अनुयायी मानते हैं। प्रतिवर्ष पन्द्रह दिनों (एक पक्ष) का एक अवसर आता है जब कर्मकाण्डी धार्मिक लोग दिवंगत आत्माओं को भेंटें, प्रदान करने के नियम का पालन करते हैं। अत: वे पितृगण तथा पूर्वज जो किन्हीं कारणों से भौतिक सुख भोगने के लिए स्थूल शरीर धारण नहीं कर सके, अपने उत्तराधिकारियों द्वारा प्रदत्त श्राद्ध पिण्डदान से पुन: ऐसे शरीर प्राप्त कर सकें। श्राद्ध कर्म अथवा प्रसाद समेत पिण्डदान की प्रथा अब भी भारत में, विशिष्ट रूप से गया में, प्रचलित है जहाँ एक प्रसिद्ध मन्दिर में विष्णु के चरणकमलों पर हवि चढ़ाई जाती है। चूँकि इस प्रकार उत्तराधिकारियों की सेवा से भगवान् प्रसन्न होते हैं, अत: पितरों की उन पतित आत्माओं को जिन्हें स्थूल शरीर नहीं मिला, वे मुक्त कर देते हैं और पुन: शरीर धारण करके आत्मोन्नति करने के लिए उन पर अनुग्रह करते हैं।
दुर्भाग्यवश माया के वशीभूत होकर बद्धजीव अपने इस प्रकार प्राप्त शरीर का उपयोग इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है और वह यह भूल जाता है कि ऐसे कर्म से उसे पुन: अदृश्य शरीर धारण करना पड़ सकता है। भगवान् के भक्त अथवा कृष्ण-भावनाभावित मनुष्य को श्राद्ध जैसे अनुष्ठान नहीं करने पड़ते क्योंकि वह परमेश्वर को निरन्तर प्रसन्न करता रहता है, फलत: उसके संकटग्रस्त पितृगण तथा पूर्वज, स्वत: मुक्त हो जाते हैं। इसके ज्वलन्त उदाहरण प्रह्लाद महाराज हैं। प्रह्लाद महाराज ने भगवान् नृसिंहदेव से प्रार्थना की कि वे उनके पापी पिता का, जिसने भगवान् के चरणों पर कई बार अपराध किया था, उद्धार करें। इस पर भगवान् ने उत्तर दिया कि जिस वैष्णव परिवार में प्रह्लाद जैसा पुत्र उत्पन्न होता है उसमें न केवल उसका पिता तथा पिता का पिता बल्कि इस प्रकार चौदह पीढिय़ाँ स्वत: तर जाती हैं। अत: निष्कर्ष यह निकला कि परिवार, समाज तथा समस्त जीवात्माओं के लिए सबसे उत्तम कार्य कृष्णभावनामृत है। श्रीचैतन्य-चरितामृत के रचयिता का कथन है कि कृष्णभावनामृत में पटु व्यक्ति कोई भी अनुष्ठान नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि पूर्ण कृष्णभावनामृत में श्रीकृष्ण की सेवा करने से सभी अनुष्ठान स्वत: सम्पन्न हो जाते हैं।
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