श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.20.5 
तयो: संवदतो: सूत प्रवृत्ता ह्यमला: कथा: ।
आपो गाङ्गा इवाघघ्नीर्हरे: पादाम्बुजाश्रया: ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
तयो:—जब दोनों (मैत्रेय तथा विदुर); संवदतो:—वार्तालाप कर रहे थे; सूत—हे सूत; प्रवृत्ता:—निकली हुई; हि— निश्चय ही; अमला:—निर्मल; कथा:—आख्यान; आप:—जल; गाङ्गा:—गंगा नदी का; इव—सदृश; अघ-घ्नी:— समस्त पापों का नाश करने वाला; हरे:—भगवान् के; पाद-अम्बुज—चरणारविन्द; आश्रया:—आश्रित, शरणागत ।.
 
अनुवाद
 
 शौनक ने विदुर तथा मैत्रेय के बीच होने वाले वार्तालाप के सम्बन्ध में प्रश्न किया कि भगवान् की निर्मल लीलाओं के अनेक आख्यान रहे होंगे। ऐसे आख्यानों को सुनना गंगाजल में स्नान करने के सदृश है क्योंकि इससे सभी पाप-बन्धन छूट सकते हैं।
 
तात्पर्य
 गंगा नदी का जल इसलिए शुद्ध है, क्योंकि यह सीधे ही भगवान् के पाद-श्री से निकलता है। भगवद्गीता गंगाजल के ही समान उत्तम है, क्योंकि यह भगवान् के मुख से निकली है। यही बात भगवान् की किसी लीला या उनके दिव्य कार्यकलाप से सम्बन्धित प्रत्येक घटना के लिए सत्य है। भगवान् परमेश्वर हैं; उनके शब्दों, उनके प्रस्वेदन या उनकी लीलाओं में कोई अन्तर नहीं है। गंगा जल, उनकी लीलाओं का वर्णन तथा उनके शब्द ये सभी एक ही परम पद पर हैं, अत: इनमें से किसी एक की शरण ग्रहण करना समान रूप से उत्तम है। श्रील रूप गोस्वामी ने कहा है कि श्रीकृष्ण से सम्बन्धित कोई भी वस्तु दिव्य पद पर होती है। यदि हम अपने समस्त कार्यकलापों का तालमेल भगवान् से बैठा लें तो हम भौतिक पद पर नहीं वरन् आत्मिक पद पर स्थित होते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥