अहो एतज्जगत्स्रष्ट: सुकृतं बत ते कृतम् ।
प्रतिष्ठिता: क्रिया यस्मिन् साकमन्नमदामहे ॥ ५१ ॥
शब्दार्थ
अहो—ओह; एतत्—यह; जगत्-स्रष्ट:—हे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा; सुकृतम्—अच्छा किया; बत—निस्सन्देह; ते—तुम्हारे द्वारा; कृतम्—उत्पन्न; प्रतिष्ठिता:—भलीभाँति स्थापित; क्रिया:—समस्त विधि-विधान; यस्मिन्—जिसमें; साकम्— इसके साथ साथ; अन्नम्—यज्ञ की आहुति, हव्य; अदाम—अपना अपना भाग लेंगे; हे—हे! ।.
अनुवाद
उन्होंने स्तुति की—हे ब्रह्माण्ड के स्रष्टा, हम प्रसन्न हैं, आपने जो भी सृष्टि की है, वह सुन्दर है। चूँकि इस मानवी रूप में अनुष्ठान-कार्य पूर्णतया स्थापित हो चुके हैं, अत: हम हवि में साझा कर लेंगे।
तात्पर्य
भगवद्गीता (३.१०) में भी यज्ञ की महत्ता का उल्लेख हुआ है। भगवान् पुष्टि करते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा ने मनुओं को यज्ञ सम्बन्धी अनुष्ठान-विधि के सहित उत्पन्न किया और उन्हें यह आशीर्वाद दिया, “इन याज्ञिक कर्मों को करते रहो। धीरे-धीरे तुम्हें आत्म-साक्षात्कार का उचित पद प्राप्त होगा और तुम भौतिक सुख भी भोग सकोगे।” ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न समस्त जीवात्माएँ बद्धजीव हैं, जो भौतिक प्रकृति को वश में करना चाहते हैं। याज्ञिक अनुष्ठानों का उद्देश्य क्रमश: जीवात्माओं में आत्म-साक्षात्कार को पुनरुज्जीवित करना है। वही इस ब्रह्माण्ड में जीवन का शुभारम्भ है। किन्तु याज्ञिक अनुष्ठानों का उद्देश्य भगवान् को प्रसन्न रखना है। जब तक मनुष्य भगवान् को प्रसन्न नहीं कर लेता अथवा कृष्णभावनाभावित नहीं हो जाता तब तक वह न ही भौतिक सुख से अथवा न ही आत्मबोध से सुखी रह सकता है।
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