श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 52
 
 
श्लोक  3.20.52 
तपसा विद्यया युक्तो योगेन सुसमाधिना ।
ऋषीनृषिर्हृषीकेश: ससर्जाभिमता: प्रजा: ॥ ५२ ॥
 
शब्दार्थ
तपसा—तप से; विद्यया—पूजा से; युक्त:—संलग्न होकर; योगेन—भक्ति में मन को एकाग्र करके; सु-समाधिना— सुन्दर चिन्तन से; ऋषीन्—ऋषियों में; ऋषि:—प्रथम दूत (ब्रह्मा); हृषीकेश:—इन्द्रियों को वश में करने वाला; ससर्ज—उत्पन्न किया; अभिमता:—प्रिय; प्रजा:—पुत्र ।.
 
अनुवाद
 
 फिर आत्म-भू जीवित प्राणी ब्रह्मा ने अपने आपको कठोर तप, पूजा, मानसिक एकाग्रता तथा भक्ति-तल्लीनता से सुसज्जित करके एवं निष्काम भाव से अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए महर्षियों को अपने पुत्रों (प्रजा) के रूप में उत्पन्न किया।
 
तात्पर्य
 यज्ञ के सारे अनुष्ठान भौतिक आर्थिक उन्नति के लिए हैं अर्थात् वे शरीर को आत्मज्ञान के अनुशीलन हेतु सक्षम बनाये रखने के लिए हैं। किन्तु वास्तविक आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्य योग्यताओं की आवश्यकता पड़ती है। इनमें विद्या अथवा परमेश्वर की पूजा अनिवार्य है। कभी-कभी योग शब्द का व्यवहार मन की एकाग्रता के लिए की गई शारीरिक क्रियाओं (आसनों) को बताने के लिए किया जाता है। सामान्य रूप से योग-पद्धति में अपनाई जाने वाली इन शारीरिक क्रियाओं को अल्पज्ञानी मनुष्य योग की परिणति समझ बैठते हैं, किन्तु ये वास्तव में परमात्मा में मन को केन्द्रित करने के लिए होती हैं। आर्थिक उन्नति हेतु मनुष्यों को उत्पन्न करने के पश्चात् ब्रह्मा ने ऋषियों की सृष्टि की, जिससे वे आत्मबोध का आदर्श प्रस्थापित कर सकें।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥