ब्रह्माण्ड के अजन्मा स्रष्टा (ब्रह्मा) ने इन पुत्रों में से प्रत्येक को अपने शरीर का एक-एक अंश प्रदान किया जो गहन चिन्तन, मानसिक एकाग्रता, नैसर्गिक शक्ति, तपस्या, पूजा तथा वैराग्य के लक्षणों से युक्त था।
तात्पर्य
इस श्लोक में विरक्तिमत् शब्द का अर्थ है “वैराग्य गुण से युक्त।” भौतिकतावादी व्यक्तियों को आत्मबोध नहीं हो सकता। जो इन्द्रिय-भोग में लिप्त रहते हैं उनके लिए आत्मबोध प्राप्त कर पाना असम्भव है। भगवद्गीता में कहा गया है कि जो मनुष्य सम्पत्ति तथा भौतिक सुख-भोग की खोज में आसक्त रहते हैं, वे योग-समाधि अर्थात् कृष्णभावनामृत में तल्लीनता प्राप्त नहीं कर सकते। जो यह विज्ञापित करते हैं कि मनुष्य इस जीवन में भौतिक सुख उठाते हुए आत्मिक (आध्यात्मिक) प्रगति कर सकते हैं वह मात्र आडम्बर है। वैराग्य के चार तत्त्व हैं—(१) अवैध विषयी जीवन से बचना, (२) मांसाहार से बचना, (३) मादक द्रव्य सेवन से बचना तथा (४) द्यूतक्रीड़ा से बचना। ये चारों तत्त्व तपस्या कहलाते हैं। आत्मबोध का विधान यह है कि मन को कृष्णभावनामृत में परमेश्वर में तल्लीन कर दिया जाय।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “मैत्रेय-विदुर संवाद” नामक बीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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