श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  3.20.9 
विदुर उवाच
प्रजापतिपति: सृष्ट्वा प्रजासर्गे प्रजापतीन् ।
किमारभत मे ब्रह्मन् प्रब्रूह्यव्यक्तमार्गवित् ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
विदुर: उवाच—विदुर ने कहा; प्रजापति-पति:—भगवान् ब्रह्मा ने; सृष्ट्वा—सृष्टि करके; प्रजा-सर्गे—जीवों की सृष्टि करने के उद्देश्य से; प्रजापतीन्—प्रजापतियों को; किम्—क्या; आरभत—प्रारम्भ किया; मे—मुझको; ब्रह्मन्—हे पवित्र ऋषि; प्रब्रूहि—बताइये; अव्यक्त-मार्ग-वित्—न जानने वालों का ज्ञाता ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर ने कहा—हे पवित्र मुनि, आप हमारी समझ में न आने वाले विषयों को भी जानते हैं, अत: मुझे यह बताएँ कि जीवों के आदि जनक प्रजापतियों को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्मा ने जीवों की सृष्टि के लिए क्या किया?
 
तात्पर्य
 यहाँ पर अव्यक्त-मार्ग-वित् शब्द अत्यन्त सार्थक है, जिसका अर्थ है, “जो हमारी कल्पना शक्ति के परे है उसे जानने वाला।” अपनी कल्पना शक्ति से परे की बातें जानने के लिए शिष्य-परम्परा की श्रेणी के किसी श्रेष्ठ अधिकारी से सीखना पड़ता है। केवल इतना भी जान पाना कि हमारा पिता कौन है हमारी कल्पना के परे है। उसके लिए माता अधिकारी है। इसी प्रकार हमें कल्पना से परे प्रत्येक वस्तु को वास्तविक ज्ञाता अर्थात् विशेषज्ञ (अधिकारी) से जानना चाहिए। प्रथम अव्यक्त-मार्ग-वित् अर्थात् विशेषज्ञ ब्रह्मा हैं और उस शिष्य-परम्परा में दूसरे नारद हैं। मैत्रेय ऋषि का उसी शिष्य-परम्परा से सम्बन्ध है, अत: वे भी अव्यक्त-मार्ग-वित् हैं। कोई भी व्यक्ति जो प्रामाणिक शिष्य-परम्परा से सम्बद्ध है अव्यक्त मार्गवित् है अर्थात् ऐसा महापुरुष है, जो सामान्य बुद्धि से परे सब कुछ जानता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥