श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  3.21.12 
जातहर्षोऽपतन्मूर्ध्ना क्षितौ लब्धमनोरथ: ।
गीर्भिस्त्वभ्यगृणात्प्रीतिस्वभावात्मा कृताञ्जलि: ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
जात-हर्ष:—स्वाभाविक रूप से प्रमुदित; अपतत्—गिर पड़ा; मूर्ध्ना—अपने सिर के बल; क्षितौ—पृथ्वी पर; लब्ध—प्राप्त हुआ; मन:-रथ:—अपनी इच्छा; गीर्भि:—स्तुतियों से; तु—तथा; अभ्यगृणात्—प्रसन्न किया; प्रीति स्वभाव-आत्मा—जिनका हृदय स्वभाव से प्रेम पूर्ण है; कृत-अञ्जलि:—हाथ जोडक़र ।.
 
अनुवाद
 
 जब कर्दम मुनि ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का साक्षात् दर्शन किया, तो वे अत्यधिक तुष्ट हुए, क्योंकि उनकी दिव्य इच्छा पूर्ण हुई थी। वे भगवान् के चरण-कमलों को नमस्कार करने के लिए नतमस्तक होकर पृथ्वी पर लेट गये। उनका हृदय स्वभाविक रूप में भगवत्प्रेम से पूरित था। उन्होंने हाथ जोडक़र स्तुतियों द्वारा भगवान् को तुष्ट किया।
 
तात्पर्य
 भगवान् के साकार रूप का साक्षात्कार योग की सर्वोच्च सिद्धि अवस्था मानी जाती है। भगवद्गीता के षष्टम अध्याय में, जहाँ योग-साधना का वर्णन है, भगवान् के इस साकार रूप के दर्शन को योग की सिद्धि बतलाया गया है। आसनों तथा अन्य अनुष्ठानों का अभ्यास कर लेने के बाद अन्त में समाधि-अवस्था प्राप्त होती है। इस समाधि-अवस्था में श्रीभगवान् के अंश रूप परमात्मा का या फिर उनके यावत् रूप का दर्शन होता है। प्रामाणिक योग धर्मग्रंथों में यथा पतञ्जलि-सूत्र में समाधि को दिव्य आनन्द कहा गया है। पतञ्जलि के ग्रंथों में योग की जो पद्धति वर्णित है, वह प्रामाणिक है और आधुनिक तथाकथित योगियों ने अधिकारी विद्वानों के ग्रंथों को देखे बिना अपनी-अपनी विधियाँ बना ली हैं, जो अत्यन्त रोचक हैं। पतञ्जलि योग पद्धति को अष्टांग योग कहा जाता है। कभी-कभी निर्विशेषवादी पतञ्जलि योग को दूषित कर देते हैं, क्योंकि वे अद्वैतवादी हैं। पतञ्जलि ने बताया है कि जब आत्मा परमात्मा से मिलता है और उसे देखता है, तो उसे दिव्य सुख मिलता है। यदि परमात्मा तथा व्यष्टि (व्यक्ति) के अस्तित्व को मान लिया जाय तो निर्विशेषदियों का अद्वैतवाद-सिद्धान्त अपने आप ध्वस्त हो जाता है, फलत: कुछ निर्विशेषवादी तथा शून्यवादी दार्शनिक पतञ्जलि विधि को तोड़-मरोड़ कर पूरी योग-प्रक्रिया को दूषित कर देते हैं।

पतञ्जलि के अनुसार जब मनुष्य समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, तो उसे वास्तविक दिव्य पद प्राप्त होता है और उस अवस्था की प्राप्ति को आध्यात्मिक शक्ति कहते हैं। भौतिक कार्यों में मनुष्य प्रकृति के गुणों को व्यवहार में लाता है। ऐसे व्यक्तियों की महत्त्वाकांक्षाएँ इस प्रकार हैं—(१) धार्मिक बनना, (२) आर्थिक रूप से समृद्ध होना, (३) इन्द्रियों की तुष्टि; तथा (४) परमेश्वर के साथ तादात्म्य। अद्वैतवादियों के अनुसार जब योगी ब्रह्म के साथ तदाकार प्राप्त कर लेता है और अपना व्यष्टि अस्तित्व खो देता है, तो उसे कैवल्य कहेजाने वाले परम पद की प्राप्ति होती है। किन्तु वस्तुत: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साक्षात्कार की अवस्था ही कैवल्य है। यह समझ लेना कि परमेश्वर पूर्णतया आध्यात्मिक है और पूर्ण आत्मबोध की अवस्था में श्रीभगवान् को समझा जा सकता है कैवल्य कहलाता है— अथवा पतञ्जलि की भाषा में इसी को आत्मशक्ति का साक्षात्कार कहते हैं। उनके अनुसार जब मनुष्य भौतिक कामनाओं से मुक्त होकर आत्मा तथा परमात्मा के आत्मबोध में स्थिर हो जाता है, तो उसे चित्-शक्ति कहते हैं। पूर्ण आत्मबोध होने पर आत्मसुख का बोध होने लगता है, जिसे भगवद्गीता में परम सुख कहा गया है और जो भौतिक इन्द्रियों के परे है। समाधि दो प्रकार की बताई गई है—सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात अर्थात् मानसिक चिन्तन तथा आत्मबोध।

असम्प्रज्ञात अथवा समाधि में मनुष्य अपनी आध्यात्मिक इन्द्रियों द्वारा भगवान् के आत्मरूप का साक्षात्कार कर सकता है। आत्म-साक्षात्कार का यही अनन्तिम उद्देश्य है। पतञ्जलि के अनुसार जब मनुष्य ईश्वर के परम रूप का निरन्तर साक्षात्कार करता रहता है, तो उसे सिद्धावस्था प्राप्त हो जाती है जैसी कि कर्दममुनि को प्राप्त हुई थी। जब तक योगपद्धति की सामान्य सिद्धावस्था के परे किसी को यह सिद्धावस्था प्राप्त नहीं हो जाती तब तक परम साक्षात्कार नहीं होता। अष्टांग योगपद्धति में आठ सिद्धियाँ होती हैं। इन सिद्धियों को प्राप्त करने पर मनुष्य हल्के से हल्का और भारी से भारी हो सकता है और जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। किन्तु योग में ऐसी भौतिक सफलताएँ प्राप्त कर लेना न तो सिद्धि है न परम साध्य। परम साध्य तो यहाँ पर वर्णित है कि कर्दम मुनि ने परम पुरुषोत्तम भगवान् को उनके नित्य रूप में देखा। भक्ति का शुभारम्भ व्यष्टि आत्मा तथा परमात्मा या श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के भक्तों के साथ सम्बन्ध होने पर होता है और इसे प्राप्त कर लेने पर च्युत होने का कोई प्रश्न नहीं उठता। यदि कोई योग-पद्धति से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का साक्षात् दर्शन करना चाहता है, किन्तु उसके साथ ही वह अन्य भौतिक शक्ति प्राप्त करने की इच्छा करता है, तो उसकी प्रगति रुक जाती है। दिव्य आत्मसुख के बोध से भौतिक सुख का कोई वास्ता नहीं, जिसको आडम्बरपूर्ण योगी प्रोत्साहन देते हैं। भक्तियोग के वास्तविक भक्त अपने जीवन-निर्वाह मात्र के लिए आवश्यक भौतिक वस्तुओं को ही स्वीकार करते हैं, वे अतिशयोक्तिपूर्ण भौतिक इन्द्रिय-तुष्टि से सर्वथा दूर रहते हैं। श्रीभगवान् के साक्षात्कार की दिशा में प्रगति के लिए वे सभी प्रकार के कष्टों को सहने के लिए उद्यत रहते हैं।

 
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