श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.21.13 
ऋषिरुवाच
जुष्टं बताद्याखिलसत्त्वराशे:
सांसिद्ध्यमक्ष्णोस्तव दर्शनान्न: ।
यद्दर्शनं जन्मभिरीड्य सद्‌भि-
राशासते योगिनो रूढयोगा: ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
ऋषि: उवाच—ऋषि ने कहा; जुष्टम्—प्राप्त किया जाता है; बत—आह; अद्य—अब; अखिल—सभी; सत्त्व— सद्गुण का; राशे:—जो आगार है; सांसिद्ध्यम्—पूर्ण सफलता; अक्ष्णो:—दोनों नेत्रों का; तव—तुम्हारे; दर्शनात्— दर्शन से; न:—हमारे द्वारा; यत्—जिसका; दर्शनम्—दर्शन; जन्मभि:—जन्म के द्वारा; ईड्य—हे पूज्य स्वामी; सद्भि:—क्रमश: पद को प्राप्त; आशासते—महत्त्वाकांक्षा रखते हैं; योगिन:—योगी; रूढ-योगा:—योग में सिद्धिप्राप्त ।.
 
अनुवाद
 
 कर्दम मुनि ने कहा—हे परम पूज्य भगवान्, समस्त अस्तित्वों के आगार आपका दर्शन प्राप्त करके मेरी दर्शन की साध पूरी हो गई। महान् योगीजन बारम्बार जन्म लेकर गहन ध्यान में आपके दिव्य रूप का दर्शन करने की आकांक्षा करते रहते हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर श्रीभगवान् को समस्त सद्गुणों एवं समस्त आनन्द का आगार कहा गया है। जब तक सत्त्वगुण को प्राप्त नहीं हो लिया जाता तब तक वास्तविक आनन्द नहीं मिलता। अत: जब कोई मनसा-वाचा-कर्मणा भगवान् की सेवा करता है, तो उसे सत्त्व की परम सिद्धि-अवस्था प्राप्त होती है। कर्दम मुनि कहते हैं, “आप सद्गुणों (सत्त्व) के नाम से ज्ञात समस्त वस्तुओं के आगार हैं और अब आपको अपने नेत्रों के सम्मुख देखकर दर्शन की सिद्धि प्राप्त हुई है।” ऐसे कथन विशुद्ध भक्तिपरक हैं, भक्त के लिए इन्द्रियों की सार्थकता भगवान् की सेवा करने में है। आँखों की सार्थकता भगवान् के सौन्दर्य अवलोकन में है, श्रवणेन्द्रिय की सार्थकता प्रभु के गुणगान सुनने में, जीभ की सार्थकता प्रसाद का स्वाद पाने में है। जब समस्त इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में लगी रहती हैं, तो इस प्रकार की सिद्धि भक्तियोग कहलाती है, जिसका अर्थ होता है भौतिकता में लिप्त इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना। जब मनुष्य सभी प्रकार के उपाधिमय बद्धजीवन से मुक्त होकर भगवान् की सेवा में अपने को पूर्णरूपेण अनुरक्त करता है, तो उसकी सेवा भक्तियोग कहलाती है, जिसका अर्थ होता है भौतिकता में लिप्त इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना। कर्दम मुनि स्वीकार करते हैं कि भक्तियोग में स्वयं भगवान् का दर्शन पाना दर्शन की सार्थकता (सिद्धि) है। कर्दम मुनि ने दर्शन की महान् सिद्धि को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कहा है। वे इसका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि जो वास्तव में योग में उन्नत हैं, वे जन्म-जन्मान्तर श्रीभगवान् के इस रूप का दर्शन करना चाहते हैं। वे कोई बनावटी योगी न थे। जो वास्तव में महान् हैं, वे भगवान् के नित्य रूप के दर्शन की ही कामना करते हैं।
 
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