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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  3.21.15 
तथा स चाहं परिवोढुकाम:
समानशीलां गृहमेधधेनुम् ।
उपेयिवान्मूलमशेषमूलं
दुराशय: कामदुघाङ्‌घ्रिपस्य ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
तथा—उसी प्रकार से; स:—मैं स्वयं; —भी; अहम्—मैं; परिवोढु-काम:—ब्याह करने की इच्छा से; समान शीलाम्—अनुरूप चरित्र वाली कन्या; गृह-मेध—विवाहित जीवन में; धेनुम्—कामधेनु; उपेयिवान्—पास आया हुआ; मूलम्—जड़ (चरणकमल); अशेष—प्रत्येक वस्तु का; मूलम्—स्रोत; दुराशय:—कामेच्छा से; काम-दुघ— समस्त इच्छाओं को प्रदान करने वाला; अङ्घ्रिपस्य—वृक्ष सदृश आपका ।.
 
अनुवाद
 
 अत: मैं भी ऐसी समान स्वभाव वाली कन्या से विवाह करने की इच्छा लेकर आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ, जो मेरे विवाहित जीवन में मेरी कामेच्छाओं को पूरा करने में कामधेनु के समान सिद्ध हो सके। आपके चरण प्रत्येक वस्तु के देने वाले हैं, क्योंकि आप कल्पवृक्ष के समान हैं।
 
तात्पर्य
 यद्यपि कर्दम मुनि ऐसे व्यक्तियों की निन्दा करते हैं, जो भौतिक लाभों के लिए भगवान् के पास जाते हैं, किन्तु उन्होंने भगवान् के समक्ष अपनी भौतिक असमर्थता तथा आकांक्षा प्रकट करते हुए कहा, “यद्यपि मुझे पता है कि आपसे कोई भी भौतिक वस्तु नहीं माँगनी चाहिए, किन्तु तो भी मेरी इच्छा है कि मैं समान शीलवती कन्या से विवाह करूँ।” यहाँ समानशीलम् पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में समान स्वभाव वाले लडक़े तथा लड़कियों का विवाह होता था; समान स्वभाव वाले लडक़े लड़कियों को इसलिए बन्धन-सूत्र में जोड़ा जाता था जिससे वे सुखी रहें। पच्चीस वर्ष से अधिक नहीं बीते होंगे और सम्भवत: आज भी, भारत में लडक़ी-लडक़ों के माता-पिता उनकी कुण्डलियाँ यह जानने के लिए दिखवाते थे कि उनकी मनोदशाओं का वास्तविक योग हो सकता है या नहीं। ऐसे विचार महत्त्वपूर्ण हैं। आजकल ऐसा विचार किये बिना ब्याह होने लगे हैं, फलत: विवाह के तुरन्त बाद तलाक तथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। पहले के समय में पति तथा पत्नी आजीवन सुखपूर्वक जीवन बिताते थे, किन्तु आजकल यह अत्यन्त कठिन हो गया है।

कर्दम समान शील की पत्नी चाहते थे, क्योंकि आध्यात्मिक तथा सांसारिक उन्नति में सहायता पहुँचाने के लिए पत्नी आवश्यक है। कहा गया है कि पत्नी धर्म, अर्थ तथा काम (इन्द्रियतृप्ति) सम्बन्धी समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती है। जिसे अच्छी पत्नी मिल जाती है, वह परम भाग्यशाली समझा जाता है। फलित ज्योतिष के अनुसार भाग्यवान पुरुष वह माना जाता है, जिसके पास परम सम्पत्ति हो, अच्छे पुत्र या श्रेष्ठ पत्नी हो। इन तीनों में से जिसके पास श्रेष्ठ पत्नी हो वह परम भाग्यशाली है। विवाह के पूर्व स्त्री का चुनाव समान शील के आधार पर करना चाहिए, इन्द्रियतृप्ति के हेतु तथाकथित शारीरिक सौन्दर्य या हाव-भाव से नहीं। भागवत के द्वादश स्कंध में कहा गया है कि कलियुग में विषयी जीवन के आधार पर विवाह होंगे और ज्योंही विषयी जीवन में कोई कमी आई नहीं कि तलाक का प्रश्न उठ खड़ा होगा।

कर्दम मुनि इस वरदान को उमा से प्राप्त कर सकते थे, क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि उत्तम पत्नी की कामना करने वालों को उमा की पूजा करनी चाहिए। किन्तु कर्दम ने श्रीभगवान् की पूजा करना श्रेयस्कर समझा, क्योंकि भागवत में संस्तुति की गई है कि चाहे कोई सकाम हो या निष्काम अथवा मुक्तिकामी, उसे परमेश्वर की पूजा करनी चाहिए। मनुष्यों की इन तीन कोटियों में से प्रथम कोटि के पुरुष भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से प्रसन्न होते हैं, दूसरी कोटि के लोग परमेश्वर का तादात्म्य चाहते हैं और तीसरी कोटि के पुरुष पूर्ण मानव हैं, जो भक्त होते हैं। वे बदले में भगवान् से कुछ भी नहीं चाहते, वे तो केवल दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे रहना चाहते हैं। प्रत्येक दशा में श्रीभगवान् की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि वे सबों के मनोरथ को पूरा करने वाले हैं। परमेश्वर की पूजा का लाभ यह है कि यदि किसी के हृदय में भौतिक सुख की कामना रहती भी है, तो श्रीकृष्ण की पूजा करने पर वह धीरे-धीरे शुद्ध भक्त बन जाता है और उसे किसी भौतिक लाभ की इच्छा नहीं रह जाती।

 
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