श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 21: मनु-कर्दम संवाद  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.21.18 
न तेऽजराक्षभ्रमिरायुरेषां
त्रयोदशारं त्रिशतं षष्टिपर्व ।
षण्नेम्यनन्तच्छदि यत्‍त्रिणाभि
करालस्रोतो जगदाच्छिद्य धावत् ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; ते—तुम्हारे; अजर—अमर ब्रह्म का; अक्ष—धुरी; भ्रमि:—घूमती हुई; आयु:—जीवन काल, उम्र; एषाम्— भक्तों का; त्रयोदश—तेरह; अरम्—तीलियाँ, अरा; त्रि-शतम्—तीन सौ; षष्टि—साठ; पर्व—जोड़, गांठे; षट्—छह; नेमि—परिधियाँ, रिम; अनन्त—असंख्य; छदि—पत्तियाँ, पत्तर; यत्—जो; त्रि—तीन; नाभि—नाभियाँ; कराल स्रोत:—प्रचण्ड वेग से; जगत्—ब्रह्माण्ड; आच्छिद्य—छेदन करता हुआ; धावत्—दौड़ता हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 आपका तीन नाभिवाला (काल) चक्र अमर ब्रह्म की धुरी के चारों ओर घूम रहा है। इसमें तेरह तीलियाँ (अरे), ३६० जोड़, छह परिधियाँ तथा उस पर अनन्त पत्तियाँ (पत्तर) पिरोयी हुई हैं। यद्यपि इसके घूमने से सम्पूर्ण सृष्टि की जीवन-अवधि घट जाती है, किन्तु यह प्रचण्ड वेगवान् चक्र भगवान् के भक्तों की आयु का स्पर्श नहीं कर सकता।
 
तात्पर्य
 काल द्वारा भक्तों की जीवन-अवधि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। भगवद्गीता में कहा गया है कि थोड़ी सी भक्ति करने से मनुष्य बड़े से बड़े संकटों से बच जाता है। सबसे बड़ा संकट है आत्मा का एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण और इससे बचने का एकमात्र उपाय है भगवान् की भक्ति करना। वैदिक साहित्य में कहा गया है—हरिं विना न सृतिं तरन्ति— भगवान् के अनुग्रह के बिना जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं मिल सकता। भगवद्गीता में कहा गया है कि भगवान् तथा उनके कार्यों की दिव्य प्रकृति, उनके प्राकट्य तथा अन्तर्धान को समझने पर ही मृत्यु का चक्र रुक सकता है और मनुष्य भगवान् के पास वापस जा सकता है। काल को कई अंशों में विभाजित किया गया है—यथा पल, घटिका, मास, वर्ष, अवधियाँ, ऋतुएँ इत्यादि। इस श्लोक में वर्णित सभी विभागों को वैदिक साहित्य की ज्योतिर्विदीय परिगणनाओं से आंका गया है। वर्ष में छह ऋतुएँ होती हैं और चार मास का चातुर्मास्य होता है। इस प्रकार के तीन चातुर्मास्यों से एक वर्ष बनता है। वैदिक ज्योतिर्गणना के अनुसार तेरह मास होते हैं। तेरहवाँ मास अधिमास या मलमास कहलाता है और प्रत्येक तीन वर्ष बाद जुड़ता रहता है, किन्तु यह काल भक्तों की आयु को छू नहीं सकता। एक अन्य श्लोक में कहा गया है कि उदय तथा अस्त होने के समय सूर्य समस्त जीवात्माओं का प्राण हर लेता है, किन्तु जो भक्ति में लिप्त रहते हैं सूर्य उनके प्राण नहीं ले सकता। यहाँ पर काल की तुलना एक विशाल चक्र से की गई है, जिससें ३६० जोड़, ऋतुओं के रूप में छह परिधियाँ तथा क्षणों के रूप में असंख्य पत्तर लगे हैं। यह नित्य ब्रह्म की धुरी में घूमता है।
 
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