ऋषि: उवाच—मैत्रेय ऋषि ने कहा; इति—इस प्रकार; अव्यलीकम्—निष्ठापूर्वक; प्रणुत:—प्रशंसित होकर; अब्ज नाभ:—भगवान् विष्णु ने; तम्—कर्दम मुनि को; आबभाषे—उत्तर दिया; वचसा—शब्दों से; अमृतेन—अमृत के समान मधुर; सुपर्ण—गरुड़; पक्ष—कंधे के; उपरि—ऊपर; रोचमान:—चमकते हुए; प्रेम—स्नेह का; स्मित—हँसी से; उद्वीक्षण—देखते हुए; विभ्रमत्—चलायमान; भ्रू:—भौंहें ।.
अनुवाद
मैत्रेय ने कहा—इन शब्दों से प्रशंसित होने पर गरुड़ के कंधों पर अत्यन्त मनोहारी रूप से दैदीप्यमान भगवान् विष्णु ने अमृत के समान मधुर शब्दों में उत्तर दिया। उनकी भौंहें ऋषि की ओर स्नेहपूर्ण हँसी से देखने के कारण चञ्चल हो रही थीं।
तात्पर्य
वचसामृतेन शब्द महत्त्वपूर्ण है। जब भी भगवान् बोलते हैं, तो वे दिव्यलोक से बोलते हैं, भौतिक जगत से नहीं। चूँकि वे दिव्य हैं, उनकी वाणी तथा उनके कार्य भी सभी दिव्य हैं, उनसे सम्बद्ध प्रत्येक वस्तु दिव्य है। अमृत शब्द से उस व्यक्ति का बोध होता है, जिसकी मृत्यु नहीं होती। भगवान् के शब्द तथा उनके कार्य मृत्युविहीन (अमर) हैं, अत: वे इस भौतिक जगत के द्वारा निर्मित नहीं हो सकते। इस संसार तथा अध्यात्म-जगत की ध्वनियाँ भिन्न-भिन्न हैं। अध्यात्म-जगत की ध्वनि अमृत तथा नित्य होती है, जबकि इस संसार की ध्वनि घिसी-पिटी तथा नश्वर है। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे—इस पवित्र नाम की ध्वनि जप करने वाले को निरन्तर प्रोत्साहन प्रदान करने वाली है। यदि कोई उबाऊ शब्दों का उच्चारण करता है, तो उसे थकान लगती है, किन्तु यदि कोई चौबीसों घण्टे हरेकृष्ण का जप करे तो थकान का अनुभव कभी नहीं होगा, बजाय इसके वह और उत्साह से अधिकाधिक जप करता ही जाएगा। जब भगवान् ने कर्दम मुनि को उत्तर दिया तो उसमें वचसामृतेन शब्द का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है, क्योंकि वे दिव्यलोक से बोल रहे थे। उनका उत्तर दिव्य शब्दों में था और जब वे बोल रहे थे तो उनकी भौंहें प्रेमवश चलायमान थीं। जब भक्त भगवान् के यश का गान करते हैं, तो वे अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और भक्तों को बिना हिचक दिव्य वर प्रदान करते हैं, क्योंकि वे अकारण भक्तों पर कृपालु रहते हैं।
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