न वै जातु मृषैव स्यात्प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् ।
भवद्विधेष्वतितरां मयि संगृभितात्मनाम् ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; वै—निस्सन्देह; जातु—कभी; मृषा—झूठा, वृथा; एव—केवल; स्यात्—होए; प्रजा—जीवात्माओं के; अध्यक्ष—हे प्रमुख; मत्-अर्हणम्—मेरी पूजा; भवत्-विधेषु—तुम जैसे लोगों को; अतितराम्—पूर्णतया; मयि— मुझमें; सङ्गृभित—स्थिर हैं; आत्मनाम्—उनका जिनके मन ।.
अनुवाद
भगवान् ने आगे कहा—हे ऋषि, हे जीवात्माओं के अध्यक्ष, जो लोग मेरी पूजा द्वारा भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, विशेष रूप से तुम जैसे पुरुष जिन्होंने अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर रखा है, उन्हें निराश होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
तात्पर्य
भगवान् की सेवा में लगे पुरुष की यदि कोई इच्छाएँ होती भी है, तो वह कभी निराश नहीं होता। सेवा में लगे पुरुष सकाम तथा अकाम कहलाते हैं। जो भौतिक सुख की अभिलाषा से भगवान् की शरण में जाते हैं, वे सकाम कहलाते हैं और जो इन्द्रियतृप्ति के लिए किसी प्रकार की इच्छाएँ नहीं करते, किन्तु स्वत:जात प्रेमवश उनकी सेवा करते हैं, वे अकाम कहलाते हैं। सकाम भक्तों की भी चार श्रेणियाँ हैं—आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। कोई शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट के कारण, तो कोई धन की आवश्यकता के कारण, कोई ईश्वर को जानने की इच्छा से कि वह है क्या और कोई अपनी ज्ञानमयी खोज से दार्शनिक की तरह भगवान् को जानने की इच्छा से भगवान् की सेवा करते हैं। इनमें से किसी भी श्रेणी के पुरुषों को निराश नहीं होना पड़ता, प्रत्येक को अपनी पूजा का अभीष्ट फल प्राप्त होता है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.